________________ 182 वर्ण, जाति और धर्म दिव्यध्वनिका ही संग्रह किया है, भरत चक्रवर्ती श्रादिके उपदेशका नहीं। इसलिए विचार कर देखा जाय तो इस सम्बन्धमें सोमदेव सूरिने जो कुछ भी कहा है वह यथार्थ प्रतीत होता है। स्पष्ट है कि वर्णाश्रमधर्म जैनधर्म का अङ्ग नहीं है, और इसलिए हम वर्णाश्रमधर्मके आधारसे शूद्रोंके धर्म सम्बन्धी नैसर्गिक अधिकारोंका अपहरण नहीं कर सकते। हम यहाँ उनके यज्ञोपवीत पहिनने या न पहिनने, विवाह सम्बन्धी रीति रिवाज और आजीविकाके साधनोंके विषयमें हस्तक्षेप नहीं करेंगे, क्योंकि ये सब सामाजिक . व्यवस्थाके अङ्ग हैं, धार्मिक व्यवस्थाके अङ्ग नहीं / इसलिए इस सम्बन्धमें सामाजिक संस्थानोंको ही निर्णय करनेका अधिकार है और वे कर भी रही हैं / पर आत्मशुद्धिके लिए पूजा करना, दान देना, शास्त्र स्वाध्याय करना तथा गृहस्थधर्म और मुनिधर्मको स्वीकार करना आदि जितने धार्मिक कर्तव्य हैं, जैनागमके अनुसार वे उनके अधिकारी रहे हैं, हैं और रहेंगे। श्रागमकी और धर्मकी दुहाई दे कर जो उनको इन कर्मोंसे रोकनेकी चेष्टा करते हैं, वास्तवमें वे धर्म और आगमकी अवहेलना करते हैं, वे नहीं जो उनके इन नैसर्गिक अधिकारोंको स्वीकार करते हैं। शूद्र वर्ण और उसका कर्म चार वर्षों में एक वर्ण शूद्र है यह हम पहले ही बतला आये हैं / साथ ही वहाँ पर उसके विद्या और शिल्प इन दो कमों का भी उल्लेख कर आये हैं / किन्तु शद्रवर्णके मात्र ये ही कर्म हैं इस विषयमें मतभेद देखा जाता है, अतः यहाँपर इस विषयकी साङ्गोपाङ्ग चरचा कर लेना आवश्यक है / इस दृष्टि से विचार करते समय सर्व प्रथम हमारी दृष्टि वराङ्गचरित पर जाती है। उसमें अन्य वर्गों के कर्मों का निर्देश करते हुए शूद्रवर्णका एकमात्र शिल्पकर्म बतलाया गया है। उसके बाद पद्मपुराणका स्थान है / - जयसिंहनन्दिके समान आचार्य रविषेण जन्मसे किसी वर्णको स्वीकार नहीं करते इसीसे तो स्पष्ट है कि उन्होंने जन्मसे वर्णव्यवस्थाका बड़े ही समर्थ शब्दोंमें