________________ जातिमीमांसा 173 भेद नहीं देखे जाते / कर्मशास्त्रमें भी इन भेदोंका उल्लेख नहीं है / इसलिए यह शरीरका भी धर्म नहीं है। उपनयन आदि संस्कारका धर्म है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसे संस्कारका धर्म माननेपर एक तो संस्कारके पूर्व त्रिवर्णके बालकको शूद्र संज्ञा प्राप्त होती है। दूसरे उपनयन संस्कार शूद्र बालक और कन्यामात्रका भी किया जा सकता है। इससे भी मालूम पड़ता है कि ब्राह्मण आदि जातियाँ अनादि नहीं हैं। ___6. कोई शूद्र अन्य प्रदेशमें ब्राह्मणरूपसे प्रसिद्धि प्राप्तकर ब्राह्मणपदको प्राप्त कर लेता है। इससे भी मालूम पड़ता है कि ब्राह्मण आदि अनादिसिद्ध स्वतन्त्र जातियाँ नहीं हैं। . ये कुछ दोष हैं जो ब्राह्मण आदि जातियोंको अनादि माननेपर प्राप्त होते हैं। इनको अनादि माननेपर इसी प्रकार और भी बहुतसे दोष आते हैं, इसलिए प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें जन्मसे वर्णव्यवस्था का खण्डनकर एकमात्र कर्मसे ही उसकी स्थापना की गई है। किन्तु इस कथनका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि कोई भी मनुष्य असत् प्रवृत्ति करने के लिए स्वतन्त्र है / मात्र इस कथनका यह तात्पर्य है कि जिनकी समीचीन प्रवृत्ति है वे तो अाचारका सम्यक् प्रकारसे पालन करें ही। साथ ही लोकमें जो पतित शूद्र माने जाते हैं उन्हें भी सब प्रकारके सम्यक आचारके पालन करनेका अधिकार है / आचार किसी वर्णविशेषकी बपौती नहीं है / जिससे उसपर किसी एक वर्णका अधिकार माना जाय और किसीको उससे बहिष्कृत रखा जाय / जातिवाद वास्तवमें ब्राह्मणधर्मकी देन है। जैनधर्ममें उसे थोड़ा भी स्थान नहीं है। यह जानकर हमें सबके साथ समान व्यवहार करना चाहिए और सबको ऊपर उठाने में प्रयत्नशील होना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ..