________________ वर्ण, जाति और धर्म . धर्म सबके लिए साधारण है / मात्र विशेष अनुष्ठानमें नियम है / अर्थात् प्रत्येक वर्णका धर्म अलग अलग है / अपने-अपने आगममें जो अनुष्ठान कहा है वह यतियोंका स्वधर्म है। अपने धर्मका व्यतिक्रम होने पर यतियोंको अपने अागममें जो प्रायश्चित्त कहा है वह विधेय है। जो जिस देवका श्रद्धालु हो वह उस देवकी प्रतिष्ठा करे। भक्ति के बिना की गई पूजाविधि तत्काल शापका कारण होती है। तथा वर्णाश्रमवालोंकी अपने आचारसे च्युत होने पर त्रयीके अनुसार शुद्धि होती है / ' यह सोमदेव सूरिका कथन है जो उन्हींके शब्दोंमें यहाँ पर उपस्थित किया गया है। वे लौकिकधर्म अर्थात् वर्णाश्रम धर्मका अाधार एकमात्र श्रुति ( वेद ) और स्मृति (मनुस्मृति)को मानते हैं। वे यह स्वीकार नहीं करते कि तीन वर्गों की स्थापना भगवान् ऋषभदेवने और ब्राह्मणवर्णकी स्थापना भरत चक्रवतीने की थी। जैसा कि स्वामी समन्तभद्र ने कहा है यह बहुत सम्भव है कि भगवान् ऋषभदेवने प्रजाको मात्र कृषि आदि कर्मों का उपदेश दिया हो और कालान्तरमें श्राजीविकाके कारण संघर्षकी स्थिति उत्पन्न होने पर क्रमसे वर्णव्यवस्थाका विकाश होकर उनके अलग अलग कर्म निश्चित हुए हों। यह जैनोंमें प्राचीन कालसे स्वीकृत रही है या ब्राह्मणधर्मके सम्पर्कसे भारतवर्षमें इसका प्रचार हुआ है यह प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण है / जैनधर्मकी वर्णाश्रमधर्म संज्ञा नहीं है, आठवीं-नौवीं शताब्दिके पूर्वके जैन साहित्यमें किसी भी प्रकारसे चार वर्ण और उनके अलग अलग कर्मोंका उल्लेख तक नहीं हुआ है, आठवीं शताब्दिसे लेकर जिन्होंने इनका उल्लेख किया भी है वे परस्परमें एकमत नहीं हैं और योग्यताके आधार पर जैनधर्ममें जो रत्नत्रयधर्मके प्रतिपादन करनेकी प्रक्रिया है उसके साथ इसका मेल नही खाता। इससे तो ऐसा ही मालूम पड़ता हैं कि वर्णाश्रमधर्म पूर्व कालमें जैनों में कभी भी स्वीकृत नहीं रहा है / यह ब्राह्मणधर्मकी प्रकृति और स्वरूपके अनुरूप होनेसे उसीकी अपनी विशेषता है। यद्यपि यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि प्राचार्योंमें इस