________________ 110 वर्ण, जाति और धर्म मूलाचारके पर्याप्ति नामक अधिकारमें सब संसारी जीवोंकी कुल कोटियाँ गिनाई हैं / इन कुल कोटियोंका उल्लेख गोम्मटसार जीवकाण्डमें भी किया गया है, इसलिए प्रश्न होता है कि यहाँ पर कुल शब्दसे क्या लिया गया है ? क्या जिस अर्थमें अन्यत्र कुल या वंश शब्द आता है उसी अर्थमें यहाँ पर कुल शब्द आया है या इसका कोई दूसरा अर्थ इष्ट है ? समाधान यह है कि अन्यत्र आये हुए कुल या वंश शब्दके अर्थसे यहाँ पर आये हुए कुल शब्दके अर्थमें फरक है, क्योंकि अन्यत्र जहाँ भी कुल शब्दका व्यवहार हुआ है वहाँ पर उससे जीव और.शरीर इनमेंसे किसीकी भी पर्याय नहीं ली गई है। यही कारण है कि आचार्य वीरसेन उसे काल्पनिक कहनेका और आचार्यकल्प पण्डित आशाधर जी उसे मृषा कहनेका साहस कर सके हैं / किन्तु कुलकोटिमें आये हुए कुल शब्दके अर्थकी यह स्थिति नहीं है। वह परमार्थसत् है / इतना अवश्य है कि मूल साहित्यमें स्पष्टीकरण न होने से उसके अर्थक विषयमें विवाद है / मूलाचारके टीकाकार वसुनन्दि सिद्धांतचक्रवर्ती तो एकेन्द्रिय आदि जातियोंके जो अवान्तर भेद हैं वही यहाँ पर कुल शब्दका अर्थ है यह स्वीकार करते हैं और गोम्मटसार जीवकाण्डके टीकाकार आचार्य अभयनन्दि उच्च और नीचगोत्रके जो अवान्तर भेद हैं वह यहाँ पर कुल शब्दका अर्थ है यह स्वीकार करते हैं। इनमेंसे कौन अर्थ ठीक है यह कहना बहुत कठिन है / इतना स्पष्ट है कि पण्डितप्रवर टोडरमल्लजीने इन दोनों अर्थोंको स्वीकार किये बिना तोसरा ही अर्थ किया है / वे कहते हैं कि 'बहुरि कुल है सो जिनि पुद्गलनि करि शरीर निपजै तिनिके भेद रूप हैं / जैसे शरीरपुद्गल आकारादि भेद करि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च विषै हाथी घोड़ा इत्यादि भेद हैं ऐसे सो यथासंभव जानने / ' पण्डित टोडरमल्लजीने उनके सामने जीवकाण्डकी संस्कृत टीकाके रहते हुए भी यह अर्थ किस आधारसे किया है इसका तो हमें ज्ञान नहीं है। परन्तु अनेक कारणोंसे यह अर्थ अधिक सङ्गत प्रतीत होता है / जो कुछ भी हो,