________________ 166 वर्ण, जाति और धर्म साहित्यिक दृष्टिसे इसे हम जातिवादके विरोधका प्रथमः प्रस्थान कह सकते हैं, क्योंकि इसके पहले जितने भी साहित्यका निर्माण हुआ है वह मात्र धर्मके आध्यात्मिक और व्यवहार पक्षको उपस्थित करने तक ही सीमित है। उसमें जातिवाद और लिङ्गवादकी हमें गन्ध भी नहीं दिखलाई देती है। इसके दूसरे प्रस्थानका प्रारम्भ मुख्यरूपसे प्राचार्य समन्तभद्रके कालसे होता है / मालूम होता है कि उनके कालमें जैनधर्मको स्वीकार करनेवाले मनुष्योंमें जातिवादको स्वीकार करनेवालोंकी बहुलता होने लगी थी / गणों और गच्छोंको स्थापित हुए अभी कुछ ही काल गया था। एक ही संघके भीतर विविध अाधारोंसे होनेवाले इन नाना प्रकारके भेदोंसे प्राचार्य समन्तभद्र बढ़े दुखी जान पड़ते हैं। इस कारण वे इन भेदोंको सम्यग्दर्शन की उत्पत्तिमें ही बाधक मानने लगे थे। इसलिए उन्होंने स्पष्ट शब्दोंमें यह घोषणा की कि 'जो ज्ञान, पूजा, कुल जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीरके महत्त्वको प्रस्थापितकर जैनधर्मको स्वीकार करता है वह सम्यग्दर्शन का भी अधिकारी नहीं हो सकता / ' उन्होंने सम्यक्त्वके दोषोंमें इन्हें गिनाकर जातिवाद और कुलवादका तीव्रतासे विरोध करनेमें प्राचार्य कुन्दकुन्दके अभिप्रायका ही प्रतिनिधित्व किया था। वस्तुतः देखा जाय तो जाति और कुलका अहङ्कार सब गतियोंमें नहीं देखा जाता। यह मानव-जातिको ही मूढ़ता है कि उसने जातिवाद और कुलवादको स्वीकारकर इन वादों द्वारा मोक्षमार्गको तिरोहित करनेका प्रयत्न किया है। सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोषों में जातिमद आदिकी परिगणना की जानेका यही कारण है, अन्यथा नारकी और तिर्यञ्च क्या जानें कि जाति और कुलका अहङ्कार कैसा होता है ? वे तो पर्यायसे ही होन योनिको प्राप्त हैं, इसलिए उनमें जातिमद और कुलमद आदिको गन्ध ही नहीं हो सकती। इन मेदोंका सम्बन्ध अनन्तानुबन्धी मानके अन्तर्गत आता है यह ज्ञान हमें प्राचार्य समन्तभद्रके उक्त उल्लेखसे स्पष्ट ज्ञात होता है, इसलिए इनके जातिवादके विरोधको हमने द्वितीय प्रस्थान संज्ञा दी है।