________________ जातिमीमांसा समताका व्यवहार करते हैं यह मुनिधर्मके प्रतिपादनकी शैलीमात्र रह गई। मुनिजीवनमें इसके लिए कोई स्थान न रहा। हिंसादि पापोंके समान तथाकथित अस्पृश्य शूद्रोंका स्पर्श और जातिलोप भी पाप मान लिए गये / यह उपदेश दिया जाने लगा कि जिनधर्मामुयायीको प्रयत्नपूर्वक जातिकी रक्षा करनी चाहिए। तथा जातिका लोप न हो इस विषयमें सावधान रहना चाहिए / जातिमर्यादाकी रक्षाके लिए त्रिवर्णाचार जैसे ग्रन्थ लिखे गये और शूद्रोंको धार्मिक क्षेत्रमेंसे इस प्रकार उठाकर फेंक दिया गया जिस प्रकार कोई मनुष्य मरी हुई मक्खीको घीमेंसे निकालकर फेंक देता है। जैनसाहित्यके अवलोकन करनेसे प्रतीत होता है कि लगभग प्रथम शताब्दिके कालसे लेकर जैनधर्मरूपी मयङ्कको जातिवादरूपी राहुने ग्रसना प्रारम्भ कर दिया था। तथा जैनधर्मके अनुसार श्रावकपद और मुदिपदको स्वीकार करनेवाले मनुष्य भावोंके स्थानमें लिङ्गकी प्रधानता मानने लगे थे / सर्वप्रथम हमें इसका आभास आचार्य कुन्दकुन्दके साहित्यसे मिलता है / आचार्य कुन्दकुन्द अपने दर्शनप्राभूतमें इनका विरोध करते हुए कहते हैं-'न देह वन्दनीय है, न कुल वन्दनीय है और न जातिसंयुक्त मनुष्य ही वन्दनीय है। गुणहीन मनुष्यको मैं कैसे वन्दना कीं। ऐसा मनुष्य न श्रावक हो सकता है और न श्रमण ही।' वे जातिवाद और कुलवादकी निन्दा करते हुए द्वादशानुप्रेक्षामें पुनः कहते हैं-'जो कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत और शीलका थोड़ा भी अहङ्कार करता है वह श्रमण मार्दवधर्मका अधिकारी नहीं हो सकता।' उन्होंने समयप्राभूतमें भावोंके विना मात्र लिङ्गका आग्रह करनेवालोंकी भी चड़ी कटु आलोचना की है। वे कहते हैं कि 'अनेक प्रकारके साधुलिङ्गों और गृहीलिङ्गोंको धारणकर मूढजन ऐसा कहते हैं कि लिङ्ग मोक्षमार्ग है। परन्तु वास्तवमें विचार किया जाय तो लिङ्ग मोक्षमार्ग नहीं हो सकता, क्योंकि देहके प्रति निर्मम हुए अरिहन्त जिन लिङ्गको महत्त्व न देकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्गकी उपासना करते हैं।'