________________ जातिमीमांसा 161 यह तो सत्य है कि लोकधर्म (रूढिधर्म ) का प्रतिपादन करनेवाले मनुस्मृति आदि ग्रन्थोंमें जन्मसे वर्णव्यवस्था ( जातिवाद ) को स्वीकार किया गया है। साथ ही यह भी सत्य है कि आचार्य जिनसेनने भी जैनधर्मका ब्राह्मणीकरण करनेके अभिप्रायसे उसे अपने ढंगसे स्वीकार कर लिया है। जहाँ इस सत्यको आचार्य गुणभद्र समझते थे वहाँ उसे स्वीकार करनेसे उत्पन्न होनेवाली बुराईयोंको भी वे जानते थे। ऐसी अवस्थामें वे क्या करें, उनके सामने यह बहुत बड़ा प्रश्न था / एक ओर वे अपने गुरुके पदचिन्हों पर भी चलना चाहते थे और दूसरी ओर वे यथासम्भव तत्त्वकी रक्षा भी करना चाहते थे / विचार कर देखा जाय तो एक प्रकारसे उनके सामने द्विविधाकी स्थिति थी। इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य गुणभद्रने इसी द्विविधाकी स्थितिमेंसे अपना मार्ग बनाया है। इसे उनका कौशल ही कहना चाहिए / यही कारण है कि वे लोकमें प्रचलित और मनुस्मृति तथा महापुराण आदि ग्रन्थों द्वारा समर्थित जातिवाद (जन्मसे वर्णव्यवस्था ) को लोकमूढता बतला कर एक ओर तो उसका खण्डन करते हैं और दूसरी ओर वे जातिका ऐसा विलक्षण अर्थ करते हैं जिसे किसी न किसी रूपमें अध्यात्म ( जैनधर्म ) में स्वीकार कर लेने पर उसकी कमसे कम अनेक बुराईयोंसे रक्षा भी हो जाती है। जाति या जन्मसे वर्णव्यवस्थाके सम्बन्धमें उन्होंने जो कुछ कहा है उसका सार यह है कि लोकमें मातापिताके आलम्बनसे जो ब्राह्मण आदि चार जातियाँ मानी जाती हैं वे वास्तविक नहीं है। यदि ये जातियाँ हैं और आगममें इन्हें स्वीकार किया जाता है तो उनका यही लक्षण हो सकता है कि जिनमें जाति नामकर्म और गोत्रकर्म शुक्लध्यानके कारण हैं वे तीन वर्ण हैं और शेष शूद्र हैं / यद्यपि आचार्य गुणभद्र द्वारा प्रतिपादित जातिके इस लक्षणको स्वीकार कर लेनेमें भी अनेक कठिनाईयाँ दिखलाई देती हैं पर इसके स्वीकार करनेसे इतना प्रत्यक्ष लाभ तो है ही कि इस आधारसे आचार्य जिनसेन द्वारा शूद्रोंके ऊपर लगाये गये प्रतिबन्ध दूर होकर अन्य त्रिवर्णों के