________________ जातिमीमांसा 15 है-प्रथम शरीर जन्मसे उत्पन्न हुई सजाति और दूसरी संस्कार जन्मसे उत्पन्न हुई सजाति / जिसे शरीर जन्मसे उत्पन्न हुई सजाति प्राप्त होती है . उसके सब प्रकारके इष्ट अर्थोकी सिद्धि होती है और जिसे संस्कार जन्मसे उत्पन्न हुई सजाति प्राप्त होती है वह भव्यात्मा सचमुचमें द्विज संज्ञाको प्राप्त होता है / इसकी पुष्टिमें आचार्य जिनसेनने कई उदाहरण उपस्थित किये हैं / वे कहते हैं कि जिस प्रकार विशुद्ध खनिसे उत्पन्न हुआ रत्न संस्कारके योगसे उत्कर्षको प्राप्त होता है उसी प्रकार क्रियाओं और मन्त्रोंसे सुसंस्कारको प्राप्त हुआ आत्मा भी अत्यन्त उत्कर्षको प्राप्त हो जाता है / अथवा जिस प्रकार सुवर्ण उत्तम संस्कारको पा कर शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार भव्य जीव उत्तम क्रियाओंके आश्रयसे शुद्ध हो जाता है (पर्व 26 श्लो०८१ से)। उत्तरकालीन जैन साहित्य पर महापुराणका प्रभाव. जब कोई एक तत्त्व किसी प्रसिद्ध पुरुषके द्वारा किसी कारणसे स्वीकार कर लिया जाता है तब वह उसी पुरुष तक सीमित न रहकर उसकी परम्परा चल पड़ती है। जाति प्रथाके विषयमें भी यही हुआ है। मनुस्मृतिके अनुसार महापुराणमें इस प्रथाको स्वीकार कर लेनेके बाद उत्तरकालीन साहित्यकार भी उससे, प्रभावित हुए बिना नहीं रहे हैं जिसके दर्शन हमें किसी न किसी रूपमें उत्तरकालीन जैन साहित्यमें पद-पद पर होते हैं। इसके लिए सर्व प्रथम हम उत्तरपुराणको उदाहरण रूपमें उपस्थित करना इष्ट समझते हैं। प्रकरण जातिमूढ़ताके निषेधका है / गुणभद्र आचार्य यह तो स्वीकार करते हैं कि जिस प्रकार गौ और अश्वमें वर्णभेद और आकृति भेद देखा जाता है उस प्रकार ब्राह्मण आदि चार वर्णके मनुष्योंमें वर्णभेद और प्राकृतिभेद नहीं दिखलाई देता। तथा ब्राह्मणो आदिमें शूद्र आदिके द्वारा गर्भधारण करना सम्भव है, इसलिए जिस प्रकार तिर्यञ्चोंमें बिल्ली, कुत्ता, गाय और घोड़ा आदि नामवाली पृथक्-पृथक् जातियाँ हैं उस प्रकार मनुष्योंमें ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि नामावली पृथक्-पृथक् जातियाँ नहीं