________________ 110 वर्ण, जाति और धर्म उदयसे न होकर मानवसमाज द्वारा कल्पित किये गये हैं, इसलिए इनके ' साथ कर्मनिमित्तक जीवकी पर्यायोंका अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है / यहाँ हमारा तात्पर्य केवल. गोत्रकर्मनिमित्तक उच्च और नीच पर्यायसे ही नहीं है और भी संयमासंयम और संयम आदि रूप जितनी भी जीवकी पर्याय हैं उनका अविनाभाव सम्बन्ध भी इन लौकिक कुलादिके साथ नहीं है। ऐसा यहाँ समझना चाहिए। इस प्रकार साङ्गोपाङ्गरूपसे विचार करने पर यही विदित होता है कि जीवकी झो उच्चसंज्ञावाली नोआगमभावरूप . जीवपर्याय होती है वह उच्चगोत्र है और जो नीचसंज्ञावाली नोआगमभावरूप जीवपर्याय होती है वह नीचगोत्र है। . एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न अब प्रश्न यह है कि जीवकी वह कौनसी पर्याय है जिसे उच्च माना जाय और उससे भिन्न वह कौनसी पर्याय है जिसे नीच माना जाय / अर्थात् किसी जीवधारीको देखकर यह कैसे समझा जाय कि यह उच्चगोत्री है और यह नीचगोत्री है ? ऐसा कोई लक्षण अवश्य ही होना चाहिए जिसके आधारसे उच्चता और नीचताका अनुमान किया जा सके। जहाँ पर उच्च या नीचगोत्र नियत है वहाँ तो यह प्रश्न नहीं उठता। परन्तु कर्मभूमिज गर्भज मनुष्योंमें उच्च या नीचगोत्र नियत नहीं है, इसलिए वहीं पर मुख्यरूपसे इसका विचार करना है। यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि गोत्रका अविनाभाव सम्बन्ध कुल और जातिके साथ नहीं हैं / वीरसेन स्वामी गोत्रका निर्णय करते समय उच्चगोत्रके प्रसंगसे स्वयं कहते हैं कि इक्ष्वाकुकुल आदि काल्पनिक हैं, वे परमार्थ सत् नहीं है, इसलिए उनको उत्पत्तिमें उच्चगोत्रका व्यापार नहीं होता / इसलिए गोत्रका अर्थ कुल, वंश या सन्तान मान लेने पर भो उसका अर्थ लौकिक कुलादिक तो हो नहीं सकता। कदाचित् गोत्रका अर्थ आचारपरक किया जाता है तो भी यह प्रश्न उठता है कि यहाँ पर आचार शब्दसे क्या अभिप्रेत है-लोकाचार या संयमासंयम और संवमरूप