________________ गोत्रमीमांसा 121 मौलिक अन्तर है। प्रथम ससीम है और दूसरी असीम / प्रथमका आधार समाज है और दूसरीका आधार जीवन / प्रथम लौकिक है और दूसरी आध्यात्मिक। तथा प्रथम काल्पनिक है और दूसरी वास्तविक / ऐसी अवस्था में सामाजिक उच्चता-नीचताके आधारसे आध्यात्मिक उच्चता-नीचताका विचार कैसे किया जा सकता है ? स्वयं वीरसेन स्वामीने धवला टीकामें विविध स्थलोंपर जो गोत्रकी मीमांसा की है, वास्तवमें वहीं इस तथ्यके समर्थनके लिए पर्याप्त है। ( इस प्रकार हम देखते हैं कि व्याख्या ग्रन्थोंमें गोत्रकी आचारपरक जितनी भी व्याख्याएँ मिलती हैं उन सबका स्वरूप सामाजिक ही है। वे गोत्रके मूल अर्थको यत्किञ्चित् भी स्पर्श नहीं करती, इसलिए वे प्रकृतमें ग्राह्य नहीं हो सकतीं। तथा इनके अतिरिक्त जो कुल या वंशपरक व्याख्याएँ हैं वे काल्पनिक और मनुप्योंके विशिष्ट वर्ग तक सीमित होनेसे उनकी भी वही स्थिति है जिसका उल्लेख आचारपरक व्याख्याओंकी मीमांसा करते समय कर आये हैं / फलस्वरूप प्रकृतमें वे भी ग्राह्य नहीं हो सकती। उक्त दोनों प्रकारको व्याख्याओंके सिवा इनके अनुरूप अन्य जितनी व्याख्याएँ हैं वे इनकी पूरक होनेसे वे भी प्रकृतमें ग्राह्य नहीं हो सकतों यह स्पष्ट ही है। ... यहाँ हम उपयोगी जानकर इतना अवश्य ही स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि गोत्र शब्द पहाड़, नाम, वंश, गोत्रकर्म, गोत्रकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई जीवकी पर्याय आदि अनेक अर्थोंमें व्यवहृत होता है, इसलिए कदाचित् नाना जीवोंमें नोआगमभावरूप उच्च और नीच पर्यायकी सदृशता देखकर गोत्रका अर्थ कुल, वंश, सन्तान या परम्परा तो हो भी सकता है पर उसका अर्थ आचार या लौकिक वंश किसी भी अवस्थामें नहीं हो सकता / गोत्रको व्यावहारिक व्याख्या. . यहाँ तक हमने गोत्रके आधारसे विस्तृत विचार किया। फिर भी उसके स्वरूप पर व्यावहारिक दृष्टि से अभी तक प्रकाश डालना रह हो गया है।