________________ गोत्रमीमांसा 127 उपस्थित होने पर यथासम्भव भक्ति और श्रद्धापूर्वक उन्हें दान दे, अपने पदके अनुरूप वृत्तिको स्वीकार कर अपनी आजीविका करे, पर्व दिनों में और अन्य कालमें एकाशन आदि करे तथा यथासम्भव इंद्रियसंयम और प्राणिसंयमका पालन करे इसमें जिनागमसे कहाँ बाधा आती है। मनुष्यकी बात तो छोड़िए, आगम साहित्यमें जहाँ पूजा और दानका प्रकरण आया है वहाँ उसका अधिकारी तिर्यञ्चतकको बतलाया गया है / षटखण्डागम खुल्लकबन्धमें एक जीवकी अपेक्षा कालका प्ररूपण करते समय पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके अवान्तर भेदोंमें उत्कृष्ट कालके निरूपणके प्रसङ्गसे धवला टीकामें यह प्रश्न उठाया गया है कि तिर्यञ्चोंका दूसरों को दान देना कैसे सम्भव है ? इसका समाधान करते हुए वहाँ पर कहा. गया है कि जो संयतातंयत तिर्यश्च सचित्तत्याग व्रत स्वीकार कर लेते हैं उनके लिए अन्य तिर्यञ्च शल्लकीके पत्तों आदिका दान करते हुए देखे जाते हैं। इस प्रकार जब तिर्यश्च तक आगममें दान देनेके अधिकारी माने गये हैं और उसके फलस्वरूप वे भोगभूमिमें और स्वर्गादि उत्तम गतियोंमें जन्म लेते हैं / ऐसी अवस्थामें शूद्रोंको उक्त कर्मोंका अधिकारी नहीं मानना न तो आगमसम्मत प्रतीत होता है और न तर्कसंगत ही, क्योंकि जैनधर्मके अनुसार सभी संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्च और मनुष्य भोगभूमि और स्वर्गके अधिकारी माने गये हैं। मनुष्य तो उसी पर्यायमें मोदके भी अधिकारी होते हैं। कर्मकाण्ड के प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार में एक गाथा आई है / उसमें कर्मभूमिकी द्रव्यस्त्रियोंके कितने संहननोंका उदय होता है यह बतलाया गया है / गाथा इस प्रकार है-- . अंतिमतियसंहडणस्सुदओ पुण कम्मभूमिमहिलाणं / आदिमतियसंहडणं णथि त्ति जिणेहिं गिद्दिष्टुं // 32 // तात्पर्य यह है कि कर्मभूमिमें उत्पन्न हुई महिलाओंमें अन्तके तीन संघननोंका उदय होता है / इनमें आदिके तीन संघनन नहीं होते ऐसा जिनेन्द्र देवने निर्देश किया है। .