________________ 134. वर्ण, जाति और धर्म जिनागमका स्वाध्याय करते हैं और यथासम्भव संयम और तपका भी / पालन करते हैं। कदाचित् ऐसे मनुष्योंको सुयोग मिलने पर वे सफल संयमको स्वीकार कर उसका भी उत्तम रीतिसे पालन करते हैं / इतना अवश्य है कि ऐसे मनुष्य यदि भावसे मुनिधर्मको स्वीकार करते हैं तो उनका नीचगोत्र बदल कर नियमसे ऊच्चगोत्र हो जाता है। ___कर्मभूमिमें क्षेत्रकी दृष्टि से आर्य और म्लेच्छ इन भेदोंमें बटे हुए और लौकिक दृष्टि से या आजीविकाकी दृष्टि से ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन चार भागोंमें बटे हुए जितने भी मनुष्य हैं उन सबका समावेश नीचगोत्री और उच्चगोत्री मनुष्योंमें हो जाता है। इन दो गोत्रोंके बाहर कोई भी मनुष्य नहीं पाये जाते, इसलिए जो ऐसा मानते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य उच्चगोत्री होते हैं और म्लेच्छ और शूद्र नीचगोत्री होते हैं उनके मतसे यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य उच्चगोत्री माने गये हैं वे तो क्षायिक सम्यग्दर्शन संयमासंयम और संयमके पात्र हैं ही। साथ ही जो म्लेच्छ और शूद्र नीचगोत्री माने गये हैं वे भी क्षायिकसम्यग्दर्शन, संयमासंयम और संयमके पात्र होते हैं। . ___ यद्यपि आगमका ऐसा अभिप्राय नहीं है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य नियमसे उच्चगोत्री होते हैं / तथा. म्लेच्छ और शूद्र नियमसे नीचगोत्री होते हैं, दृष्टान्तके लिए भरतचक्रवर्तीके द्वारा बनाये गये श्रावकोंको लीजिए / नियम यह है कि जो श्रावक धर्मको स्वीकार करता है वह नीचगोत्री भी होता है और उच्चगोत्री भी होता है, इसलिए भरतचक्रवर्तीने केवल उच्चगोत्री श्रावकोंको ब्राह्मणवर्णमें स्थापित किया होगा ऐसा तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि उस समय जितने श्रावक थे उन सबको ब्राह्मणवर्णमें स्थापित किया गया था ऐसा पुराण ग्रन्थोंसे विदित होता हैं, अतएव ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य केवल उच्चगोत्री ही होते हैं यह मान्यता ठीक नहीं है / जो आचार्य इस मान्यताको लेकर चले भी हैं,