________________ गोत्रमीमांसा 125 आचार्य जिनसेन पुराने षट्कर्मों के स्थानमें अपने द्वारा चलाये गये इन षटकर्मोंको ब्राह्मणोंका कुलधर्म कहते हैं। आगे उन्होंने उपनीति क्रिया और कुलचांसे इनका सम्बन्ध स्थापित कर इन्हें आर्यघटकर्म भी कहा है। साधारणतः आचार्य जिनसेनने गर्भादानादि सब क्रियाओंका उपदेश ब्राह्मणवर्णकी मुख्यतासे ही दिया है। उपनीति आदि क्रियाएँ क्षत्रिय और वैश्यों के लिए निषिद्ध नहीं हैं, इसलिए असिआदि कमों के आधारसे कहीं-कहीं द्विजों में उनका भी अन्तर्भाव कर लिया है। उनके विवेचनसे स्पष्ट विदित होता है कि वे आर्य शब्द द्वारा केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णवाले मनुष्योंको ही स्वीकार करना चाहते हैं। इस प्रकरणमें उन्होंने शूद्रों की आर्यों में कहीं भी परिगणना नहीं की है। __ इज्या आदि आर्य षटकर्मोंका उल्लेख तो चारित्रसारके कर्ताने भी किया है। तथा वार्ता के स्थानमें गुरूपास्तिको रखकर इनका उल्लेख सोमदेवसूरिने भी किया है / किन्तु उन्हें वे गृहस्थोंके कर्तव्योंमें परिगणित करते हैं, केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके आवश्यक कर्तव्योंमें नहीं। चारित्रसारका उल्लेख इस प्रकार है- गृहस्थस्येज्या वार्ता दत्तिः स्वाध्यायः संयमः तप इत्यार्यषटकर्माणि भवन्ति / यह तो हम आगे चलकर विस्तारके साथ बतलानेवाले हैं कि महापुराणके अनुसार ब्राह्मणवर्णकी स्थापना भरत चक्रवतीने की थी और उन्होंने ही उन्हें इज्या आदि आर्य षट्कर्मोंका उपदेश देकर उनका कुलधर्म बतलाया था। ऋषभ भगवान्ने केवलज्ञान होनेके बादकी बात छोड़िए गृहस्थ अवस्थामें भी न तो ब्राह्मणवर्णकी स्थापना ही की थी और न उन्हें अलगसे आर्यषट कर्मोंका उपदेश ही दिया था। चरित्रसारके कर्ता इस अन्तरको समझते थे, मालूम पड़ता है कि इसीलिए उन्होंने द्विजके स्थानमें जानबूझकर गृहस्थ शब्द रखा है। ...ये छह कर्म गृहस्थके आवश्यक कर्तव्य कहे जा सकते हैं इसमें सन्देह नहीं / आचार्य कुन्दकुद रयणसारमें कहते हैं