________________ गोत्रमीमांसा 131 बिना उत्पन्न हुई क्रोधादि पर्याय / कुछ पर्याय बीवन पर्यन्त होती हैं। - जैसे स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद पर्याय / उच्चगोत्र और नीचगोत्र भी गोत्रकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई पर्याय हैं, इसलिए उनके विषयमें क्या नियम है ? क्या वे क्रोधादि पर्यायके समान एक समयमें या अन्तर्मुहूर्तमें बदल जाती हैं या. वेदनोकषायके समान जीवनके अन्त तक स्थायीरूपसे बनी रहती हैं ? यह प्रश्न है। इसके समाधानके लिए हमें थोड़ा उदय प्रकरण पर दृष्टिपात करनेकी आवश्यकता है। वहाँ बतलाया है कि नारकियों और तिर्यञ्चोंमें एकमात्र नीचगोत्र पर्याय होती है। देवोंमें केवल उच्चगोत्र पर्याय होती है तथा मनुष्योंमें कुछमें नीचगोत्र और कुछमें उच्चगोत्र पर्याय होती है, इसलिए इस कथनसे तो इतना ही बोध होता है कि वेदनोकषायके समान गोत्रके विषयमें भी यह नियम है कि भवके प्रथम समयमें जिसे जो गोत्र मिलता है वह जीवनके अन्ततक बना रहता है। उसमें परिवर्तन नहीं होता / गोत्रकी अपरिवर्तनशीलताके विषयमें यह साधारण नियम है / किन्तु इस नियमके कुछ अपवाद है जिनका विवरण इस प्रकार है 1. जो नीचगोत्री मनुष्य सकलसंयम (मुनिधम) को स्वीकार करता है उसका नीचगोत्र बदल कर उच्चगोत्र हो जाता है। ____ 2. जो तिर्यञ्च संयमासंयम (श्रावकधर्म) को स्वीकार करता है उसका भी नीचगोत्र बदल कर उच्चगोत्र हो जाता है। यद्यपि कार्मिक साहित्यमें सब प्रकारके तिर्यञ्चोंमें नीचगोत्र होता है यह उल्लेख किया है / महाबन्धके परस्थान सन्निकर्ष अनुयोगद्वारमें तिर्यञ्चगतिके साथ नीचगोत्रका ही सन्निकर्ष बतलाया है, इसलिए इससे भी यही फलित होता है कि सब तिर्यञ्च नीचगोत्री होते हैं। किन्तु वीरसेन स्वामी इस मतको स्वीकार नहीं करते और इसे वे पूर्वापर विरोध भी नहीं मानते / उनके कहनेका आशय यह है कि अन्य गुणस्थानवाले सब तिर्यञ्च भले ही नीचगोत्री रहे आवे, किन्तु संयतासंयत तिर्यञ्चोंको उच्चगोत्री मानने में आगमसे बाधा नहीं आती।