________________ 120 / वर्ण, जाति और धर्म इसके लिए उन्हें यहाँ के मूल निवासियोंको पददलित करके ही अपने निवासके योग्य भूमि प्राप्त करनी पड़ी थी। इस उलट फेरमें जिन मूल निवासियोंने उनकी दासता स्वीकार कर ली थी, दास बनाकर उनसे वे सेवा टहल कराने लगे थे / वस्तुतः वर्तमानकालीन शूद्र उन्हींके उत्तराधिकारी हैं / यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि प्राचीन जैन साहित्यमें मनुष्योंके न तो आर्य और म्लेच्छ ये भेद दृष्टिगोचर होते हैं और न हीब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये भेद ही दृष्टिगोचर होते हैं ) हमारी समझसे प्राचीन जैन साहित्यमें इन भेदोंका दृष्टिगोचर न होना. महत्त्वपूर्ण है और वह इस तथ्यकी ओर इशारा करता है कि भारतवर्षमें प्राचीन सामाजिक रचना ब्राह्मण धर्ममें स्वीकृत सामाजिक रचनासे भिन्न प्रकारकी थी / यदि समाज रचनाकी दृष्टि से उनमें ऊँच-नीचसम्बन्धी तो नहीं अन्य किसी प्रकारका भेद था भी तो भी वह धार्मिक क्षेत्रमें दृष्टिगोचर नहीं होता था। उत्तरकालीन जैनसाहित्यमें चार वर्गों को स्वीकारकर शूद्रवर्णकी गणना हीन कोटिमें की गई इसे ब्राह्मणधर्मकी ही देन समझनी चाहिए। .. ____ यह तो सुविदित है कि देवमात्र उच्चगोत्री होते हैं। किन्तु उनमें आर्य और म्लेच्छ ऐसे भेद न होनेसे न तो उनकी आर्यों में परिगणना होती है और न वे आर्योंके 'अति' आदि षट्कर्मद्वारा अपनी आजीविका ही करते हैं / इस स्थितिसे वीरसेन स्वामी सम्यक्प्रकार सुपरिचित थे / फिर भी उन्होंने उच्चगोत्रका ऐसा लक्षण बनाया है जो मात्र विशिष्ट वर्गके मनुष्योंमें ही किसी प्रकार घटित किया जा सकता है। उन्होंने ऐसा क्यों किया ? उत्तरोत्तर एक-एक विशेषण देकर वे उच्चगोत्रके लक्षणको सीमित क्यों करते गये। मालूम पड़ता है कि इस अन्तिम विशेषण द्वारा भी वे उसी सामाजिक व्यवस्थाको दृढमूल करना चाहते थे जिसका परिष्कृत रूप आचार्य जिनसेनके महापुराणमें निर्दिष्ट किया है, अन्यथा वे उच्चगोत्रका लक्षण विशिष्ट सामाजिक व्यवस्थाको ध्यानमें रखकर कभी न करते / कहाँ तो सामाजिक उच्चता-नीचता और कहाँ आध्यात्मिक उच्चता-नीचता, इनमें