________________ गोत्रमीमांसा 116 'साध्वाचारैः कृतसम्बन्धानाम्' पदसे स्पष्टतः ध्वनित होती है। इस प्रकार प्रथम विशेषणके समान दूसरा विशेषण भी सामाजिक सीमाको बाँधनेके अभिप्रायसे ही दिया गया है, गोत्रके आध्यात्मिक स्वरूपको स्पष्ट करनेके अभिप्रायसे नहीं यह उक्त कथनसे फलित हो जाता है। __ अब तीसरे विशेषण पर विचार कीजिए / वह है-'जो आर्य इस प्रकारके ज्ञान और वचन व्यवहारमें निमित्त हैं।' इस विशेषण द्वारा केवल यह दिखलाया गया है कि उच्चगोत्री आर्य मनुष्य ही हो सकते हैं, अन्य नहीं। यहाँ पर प्रश्न होता है कि शूद मनुष्योंको आर्य माना. जाय या नहीं ? यदि उन्हें आर्य माना जाता है तो इस विशेषणके अनुसार उन्हें उच्चगोत्री भी मानना पड़ता है। यह कहना तो बनता नहीं कि आर्य होकर भी वे उच्चगोत्री नहीं हो सकते, क्योंकि जब वे आर्योंकी षट कर्मव्यवस्थाको स्वीकार करते हैं और स्वयं आर्य हैं। ऐसो अवस्थामें उक्त लक्षणके अनुसार उन्हें उच्चगोत्री न मानना न्यायसंगत कैसे कहा जा सकता है ? यह तो है कि वीरसेन स्वामीने उन्हें नीचगोत्री माना है / पर वे नीचगोत्री क्यों हैं इसका उन्होंने कोई समुचित कारण नहीं दिया है। हमारी समझसे वीरसेन स्वामी द्वारा शूद्रोंको नीचगोत्री माननेका उनको सामाजिक व्यवस्थामें अन्य वर्णवालोंके समान बराबरीका स्थान न मिल सकना ही मुख्य कारण रहा है / यद्यपि वैदिक धर्मशास्त्रमें अनेक स्थलों पर वैश्योंकी परिगणना शूद्रोंके साथ की गई है। किन्तु वणिज जैसा महत्त्वपूर्ण विभाग उनके हाथमें होनेसे उसके 'बलसे वे तो अपना सामाजिक उक्त दर्जा प्राप्त करनेमें सफल हो गये, परन्तु शूद्रोंको यह भाग्य कभी भी नसीब न हो सका। इसका एक कारण और विदित होता है और वह ऐतिहासिक है। 'इतिहासने इस तथ्यको स्पष्ट रूपसे स्वीकार कर लिया है कि आर्य भारतवर्ष- . के मूल निवासी नहीं हैं / वे मध्य एशियासे आकर यहाँ के निवासी बने हैं।