________________ . वर्ण, जाति और धर्म . .. सम्बन्ध स्थापित कर लिया है।' कर्मसाहित्यका नियम है कि जो नीचगोत्री होता है उसके मुनिदीक्षा या श्रावकदीक्षा लेते समय नीचगोत्र बदलकर उच्चगोत्र हो जाता है / मालूम पड़ता है कि वीरसेन.स्वामीने इस वचनका निर्वाह करनेके लिए उक्त विशेषण दिया है। अब प्रश्न उठता है कि मुनिदीक्षा या श्रावकदीक्षाके समय नीचगोत्र किसका बदल जाता है ? यह तो वीरसेनस्वामीने ही स्वीकार किया है कि जो तिर्यञ्च श्रावकधर्मको स्वीकार करते हैं उनका नीचगोत्र बगलकर उच्चगोत्र हो जाता है। परन्तु मनुष्योंके विषयमें उन्होंने ऐसा कोई स्पष्ट संकेत नहीं किया है। पर उनके गोत्रसम्बन्धी धवला टीकाके उक्त प्रकरणको देखनेसे यह स्पष्ट विदित होता है कि वे शूद्रवर्णवाले मनुष्योंके और म्लेच्छ मनुष्योंके नीचगोत्रका उदय तथा तीन वर्णवाले मनुष्योंके उच्चगोत्रका उदय मानते रहे हैं, इसलिए इस आधारसे यह सहज ही सूचित हो जाता है कि जो शूद्र या म्लेच्छ मनुष्य मुनिधर्म या श्रावकधर्मको स्वीकार करते हैं वे उच्चगोत्री हो जाते हैं / यह वीरसेन स्वामीके धवला टीकाके कथनका फलितार्थ है / फिर भी उन्हें यह समग्र विचार मान्य रहा है यह हम इसलिए निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते, क्योंकि उनके प्रमुख शिष्य जिनसेन स्वामीने केवल इतना ही माना है कि चक्रवर्तीकी दिग्विजयके समय जो म्लेच्छ मनुष्य आर्यखण्डमें आकर चक्रवर्ती आदिके साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं वे या उनकी कन्याओंका चक्रवर्ती के साथ विवाह हो जाने पर उनसे उत्पन्न हुई सन्तान मुनिदिक्षाके योग्य हैं। हो सकता है कि इस विषयमें गुरु और शिष्यके मध्य कदाचित् मतभेद रहा हो। इस प्रकारकी शंकाके लिए इसलिए स्थान है, क्योंकि वीरसेन स्वामीने धवला टीकामें दो स्थलों पर अकर्मभूमिजोंमें संयमस्थानोंका निर्देश करके भी अकर्मभूमिजोंकी स्पष्ट व्याख्या नहीं की है और सिद्धान्त ग्रन्थों में स्वीकार की गई पुरानी परम्पराको यथावत् कायम रहने दिया है / जो कुछ भी हो / इतना स्पष्ट है कि इस विशेषणको देते समय भी वीरसेन स्वामीके सामने सामाजिक व्यवस्था मुख्य रही है जो