________________ 14 वर्ण, जाति और धर्म केवल सुपारी खानेसे जीव नरक जाता है। इस कथनको भी भगवद्वाणी. माननेके लिए बाध्य होना पड़ेगा और उनके कथनका यह तात्पर्य न होकर केवल इतना ही तात्पर्य है कि किसी भी शास्त्रीय विषय पर विचार करते समय मूल आगम साहित्यकी तात्त्विक पृष्ठभूमिको ध्यानमें रखकर . ही उसका विचार होना चाहिए तो हमें इस तथ्यको स्वीकार करनेमें रञ्चमात्र भी हानि नहीं है। हम मानते हैं कि मूल श्रागम साहित्यमें प्रमेयका जिस रूपमें निर्देश हुआ है वह यथार्थ है। किन्तु उत्तर कालीन व्याख्या ग्रन्थोंमें सर्वत्र उसका उसी रूपमें निर्वाह हुआ है, सर्वथा ऐसा मानना उचित नहीं है / जहाँ उसका यथार्यरूपसे व्याख्यान हुआ है वहाँ उसे उसी रूपमें स्वीकार करना चाहिए और जहाँ देश, काल, परिस्थितिके अनुसार उसमें अन्तर आया है वहाँ उसे भी दिखलाना चाहिए यह लोक और शास्त्र सम्मत मार्ग है / तात्पर्य यह है कि वस्तुस्वरूपके प्रतिपादन करनेमें यथार्थवादी दृष्टिकोणको स्वीकार करना 'बुरा नहीं है / यह वस्तुमीमांसाकी पद्धति है। इसे स्वीकार करनेसे वस्तुस्वरूपके निर्णय करनेमें सहायता मिलती है। हम पहले वेदनोकषायकी इसी दृष्टिकोणसे मीमांसा कर आये हैं। गोत्रकी मीमांसा करते समय भी हमें इसी दृष्टिकोणको स्वीकार करनेकी आवश्यकता है। गोत्रकी व्याख्याओंकी मीमांसा हम पहले गोत्रकी नौ व्याख्याएँ दे आये हैं। उनमें से जो व्याख्याएँ जीवकी पर्याय परक हैं वे आगम सम्मत हैं, इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि उच्च या नीच किसी भी गोत्रके उदयसे जीवकी नोआगमभावरूप पर्यायका ही निर्माण होता है। किन्तु जो व्याख्याएँ इससे भिन्न अभिप्रायको लिए हुए हैं उन्हें उसी रूपमें स्वीकार करना उचित नहीं है। उदाहरणार्थ उक्त . नौ व्याख्याओंमें कई व्याख्याएँ आचारपरक कही गई हैं। उन सबको मिलाकर पढ़ने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि आयोचित आचारवाले