________________ गोत्रमीमांसा आचार ? किन्तु विचार करनेपर विदित होता है कि गोत्रका अर्थ लोकाचार या संयमासंयम और संयमरूप आचार करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भवके प्रथम समयमें किसी भी जीवको इनमेंसे किसीकी भी प्राप्ति नहीं होती / इसलिए गोत्रका अर्थ आचार भी नहीं हो सकता। यदि कहा जाय कि उच्च और नीच गोत्रके उदयसे आचारकी प्राप्ति नहीं होती है तो मत होओ। पर उससे ऐसी योग्यता अवश्य उत्पन्न हो जाती है जिससे वह कालान्तरमें अमुक प्रकारके आचारको धारण करता है सो यह कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि जिसके कालान्तरमें अमुक प्रकारका आचार पाया जावेगा वह नियमसे उच्चगोत्री या नीचगोत्री होगा ही। अन्य गति के जीवोंमें वर्णाचार धर्म नहीं है फिर भी उनमेंसे देव और भोगभूमिज मनुष्य उच्चगोत्री होते हैं तथा नारकी और तिर्यञ्च नीचगोत्री होते हैं। यही बात संयमासंयम और संयमके लिए भी लागू होती है, क्योंकि जो उच्चगोत्री होते हैं उनमें नियमसे संयमासंयम और संयमको धारण करनेकी योग्यता होती ही है यह भी नहीं है और जो नीचगोत्री होते है उनमें नियमसे इनको धारण करनेकी योग्यता नहीं होती यह भी नहीं है / इस प्रकार जैसे गोत्रका अर्थ लौकिक कुल, वंश या जातिपरक नहीं हो सकता वैसे ही वह आचारपरक भी नहीं हो सकता यह निश्चित हो जाने पर हमें जीवको उच्च और नीच पर्यायकी आध्यामिक आधारसे ऐसी व्याख्या करनी होगी जो चारों गतियोंमें सब जीवोंमें समान रूपसे घटित होनेकी क्षमता रखती हो, क्योंकि जैनधर्मके अनुसार गोत्र केवल कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है। उसका सद्भाव चारों गतियोंमें समानरूपसे सबके पाया जाता है। तात्पर्य यह है कि उच्च या नीचगोत्र एकेन्द्रियसे लेकर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक सब संसारी जीवोंकी पर्याय विशेषका नाम है, इसलिए विचारणीय यह है कि जीवको वह कौनसी पर्यायविशेष है जो उच्च या नीच शब्द द्वारा कही जाती है ?