________________ वर्ण, जाति और धर्म समाजव्यवस्थासम्बन्धी नियमोंका विचार किया गया है। इस विषयको स्पष्ट करने के लिए यहाँ पर हम दोनों धर्मों के धार्मिक साहित्यकी प्रकृतिको खोलकर रख देना आवश्यक मानते हैं। आचार्य जिनसेन प्रणीत महापुराणमें 'असि' आदि षट्कर्मव्यवस्थाका उपदेश आदिब्रह्मा ऋषभदेवके मुखसे दिलाया गया है। पद्मपुराण और हरिवंशपुराणमें भी यह वर्णन लगभग इसी प्रकारसे उपलब्ध होता है। आदिनाथ जिनकी स्तुति करते हुए स्वामी समन्तभद्रने स्वयंभूस्तोत्रमें उन्हें 'कृषि' आदि कर्मका भी. उपदेष्टा कहा है। इससे इतना तो शांत होता है कि यह मान्यता अपेक्षाकृत प्राचीन है। केवल आचार्य जिनसेनकी अपने मनकी कल्पना नहीं है। किन्तु भगवान् आदिनाथ 'असि' आदि षटकर्मव्यवस्थाका उपदेश केवलशान होनेपर नहीं देते। केवलज्ञान होनेपर वे एकमात्र मोक्षमार्गका ही उपदेश देते हैं। स्वयं आ० जिनसेन इस तथ्यको प्रकट करते हुए क्या कहते हैं यह उन्हींके शब्दोंमें पढ़िए / वे कहते हैं असिमषिः कृषिर्विद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च / कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजाजीवनहेतवः // 17 // तत्र वृत्ति प्रजानां स भगवान् मतिकौशलात् / उपादिक्षत् सरागो हि स तदासीजगद्गुरुः // 180 पर्व 16 // अर्थात् असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कर्म प्रजाकी आजीविकाके हेतु हैं। भगवान् ऋषभदेवने अपनी बुद्धिकी कुशलतासे प्रजाके लिए इन्हीं छह कर्मों द्वारा वृत्ति (आजीविका) का उपदेश दिया था। सो ठीक ही है, क्योंकि उस समय बगद्गुरु भगवान् सरागी थे। यह कथन इतना स्पष्ट है जो हमें दर्पणके समान स्थितिको स्पष्ट करनेमें सहायता करता है। आजीविकाके उपाय सोचना और उनके अनुसार व्यवस्था बनाना इसका सम्बन्ध मोक्षमार्गसे नहीं है। मोक्षमार्गमें मात्र