________________ वर्ण, जाति और धर्म मिलने पर धर्ममें रुचि रखते हैं और उसका पालन करते हैं वे. आर्य ही हैं / तथा जो मनुष्य आर्य क्षेत्रमें उत्पन्न होते हैं, परन्तु धर्म-कर्मसे हीन हैं वे म्लेच्छ ही हैं / इसी प्रकार बहुत से मनुष्य म्लेच्छ क्षेत्रमें उत्पन्न होनेके कारण म्लेच्छ कहे जाते हैं / परन्तु वे उस क्षेत्रमें उत्पन्न होनेके कारण ही म्लेच्छ नहीं हो सकते / यदि उनके कर्म म्लेच्छोंके समान हों तो ही वे म्लेच्छ माने जा सकते हैं / यदि म्लेच्छ क्षेत्र में उत्पन्न होकर भी किसीका कर्म आर्योंके समान हो तो वह आर्य ही है। इसी प्रकार जो आर्य क्षेत्रमें उत्पन्न होकर भी कर्मसे म्लेच्छ है वह क्षेत्रसे आर्य होकर भी म्लेच्छ ही है। वास्तवमें जैनधर्म एक तो मनुष्योंमें आर्य और म्लेच्छ ये भेद स्वीकार ही नहीं करता / षटखण्डागम आदि प्राचीन जैन साहित्यमें इस प्रकारके भेदोंके दृष्टिगोचर न होनेका यही कारण है / यदि मनुष्योंमें आर्य और म्लेच्छ रूपसे कोई भेदक रेखा खींची ही जाती है तो वह गुणकृत ही हो सकती है, क्षेत्रकृत नहीं यह उक्त कथनका सार है। . एक महत्त्वपूर्ण उल्लेख- . कषायप्राभूत चूर्णिमें संयम ( भाव मुनिधर्म) के प्रसङ्गसे एक महत्त्वपूर्ण उल्लेख आता है / वहाँ बतलाया है कि संयमको धारण करनेवाले मनुष्य दो प्रकारके होते हैं-कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज / जो कर्मभूमिज मनुष्य होते हैं उनमें संयमभावके प्रतिपद्यमान स्थानोंके जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थान तकके संयमके जितने विकल्प होते हैं वे सब पाये जाते हैं। किन्तु जो अकर्मभूमिज मनुष्य होते हैं उनमें इन स्थानोंके * मध्यम विकल्प ही उपलब्ध होते हैं / यह तो मानी हुई बात है कि षट् खण्डागम, कषायप्राभृत और कषायप्राभूतचूर्णि इस सब मूल आगम साहित्यमें संयमभावका उत्कृष्ट काल कुछ कम (आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तकम) एक पूर्वकोटि बतलाया है, क्योंकि अधिकसे अधिक एक पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य गर्भसे लेकर आठ वर्षका होने पर यदि संयमको धारण करता है तो संयमका उकृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिसे अधिक नहीं