________________ गोत्रमीमांसा 103 माने जाते हैं। वे आठ ऋषि ये हैं-जमदग्नि, भरद्वाज, विश्वामित्र, अत्रि, गौतम, वशिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य / इस तथ्यको स्वीकार करते हुए गोत्रप्रवर में कहा है जमदग्निर्भरद्वाजो विश्वामित्रात्रिगौतमाः / वशिष्ठः कश्यपोऽगस्त्यो मुनयो गोत्रकारिणः // वेदों और ब्राह्मणोंमें भी इनका नाम आता है / ये सब मंत्रदृष्टा ऋषि माने गये हैं। इनके बाद इनकी पुत्र-पौत्र परम्परामें कुछ मन्त्रदृष्टा ऋषि और हुए हैं जिनके नाम पर भी गोत्रकी परम्परा चली है। यही तथ्य गोत्रप्रवरमें इन शब्दोंमें व्यक्त किया गया है . अपित्वं ये सुता प्राप्ता दशानामृषीणां कुले / यज्ञे प्रवीयमाणत्वात् प्रवरा इति कीर्तिताः // - ये सब गोत्र हजारों और लाखों हैं / पर मुख्य रूपसे वे उनचास लिये जाते हैं। जमदग्नि आदि आठ ऋषियोंके समकालमें भृगु और अंगिरा ये दो ऋषि और हुए हैं। ये भी मन्त्रदृष्टा थे पर इनके नाम पर गोत्रका प्रचलन नहीं हो सका। ये गोत्रकर्ता क्यों नहीं बन पाए इसका कारण जो कुछ भी रहा हो। इतना स्पष्ट है कि उस समय अपने-अपने नाम पर गोत्रप्रथा चलानेके प्रश्नको लेकर इनमें आपसमें मतभेद था। * साधारणतः ब्राह्मणपरम्परामें गोत्र रक्तपरम्पराका पर्यायवाची माना गया है, इसलिए यह परम्परा स्वीकार करती है कि ब्राह्मण सदा काल ब्राह्मण ही बना रहता है / जिसका ब्राह्मण जातिमें जन्म हुआ है वह अन्य जातिवाला कभी नहीं हो सकता। इस परम्परामें प्रारम्भसे ही सदाचारको अपेक्षा रक्तपरम्पराको बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। इस परम्पराके अनुसार यदि किसीकी जाति बदलती है तो वह इस परम्पराकी कल्पनाके अनुसार मुख्यतः रक्तके बदलनेसे ही बदल सकती है, अन्यथा नहीं।