________________ वर्ण, जाति और धर्म व्याख्या करते हुए सुस्पष्ट शब्दोंमें घोषित करते हैं कि उच्चगोत्र और नीचगोत्र जीवकी पर्यायरूपसे देखे जाते हैं, इसलिए गोत्रकर्म आत्मामें निबद्ध है। तात्पर्य यह है कि गोत्रकर्मका व्यापार मात्र आत्मामें होता है बाह्य लौकिक कुलादिकके आश्रयसे नहीं, अतएव उसके उदयसे आत्माकी विवक्षित पर्यायका ही निर्माण होता है, लौकिक कुल या वंशका नहीं। गोत्रकी विविध व्याख्याएँ___ साधारणतः मूल अागम साहित्यमें गोत्रकर्मके भेदोंके साथ वे दोनों भेद जीवविपाकी हैं इतना मात्र उल्लेख है। वहाँ उनके सामान्य और विशेष लक्षणोंका ऊहापोह नहीं किया गया है। यह स्थिति गोत्रकर्मको ही नहीं है। अन्य कर्मों के विषयमें भी यही हाल है। इसलिए मूल आगम साहित्यके आधारसे हम केवल इतना ही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जिस कर्मके उदयका निमित्त पाकर जीव स्वयं अपनी उच्च पर्यायका निर्माण करता है वह उच्चगोत्र है और जिस कर्मके उदयका निमित्त पाकर जीव स्वयं अपनी नीच पर्यायका निर्माण करता है वह नीचगोत्र है। परन्तु जीवकी वह उच्च और नीच पर्याय किमात्मक होती है इसका वहाँ सुस्पष्ट निर्देश न होनेसे बाह्य परिस्थिति वश उत्तरकालीन व्याख्या ग्रन्थोंमें उसकी अनेक प्रकारसे व्याख्याएँ की गई हैं / संक्षेपमें वे सब व्याख्याएँ इस प्रकार हैं 1. जिसके उदयसे लोकपूजित कुलोंमें जन्म होता है वह उच्चगोत्र है और जिसके उदयसे गर्हित कुलोंमें जन्म होता है वह नीचगोत्र है। 2. अनार्योचित आचार करनेवाला जीव नीचगोत्री है / तात्पर्य यह है कि आर्योंचित आचारका नाम उच्चगोत्र है और अनार्योचित आचारको नीचगोत्र कहते हैं। 3. जिसके उदयसे जीव उच्चोच्च, उच्च, उच्चनीच, नीचोच्च, नीच और नीच-नीच (परम नीच ) होता है वह गोत्रकर्म है।