________________ - 18 वर्ण, जाति और धर्म . . . (1) जो मनुष्य कर्मभूमिज हैं, पर्याप्त हैं और जो कर्मभूमिसम्बन्धी किसी भी क्षेत्रमें उत्पन्न हुए हैं वे सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमधर्मके पूर्ण अधिकारी हैं। (2) आर्यक्षेत्रमें जाकर आर्योंके साथ वैवाहिक ( सामाजिक ) सम्बन्ध स्थापित करने पर ही म्लेच्छ मनुष्य संयमधर्मके अधिकारी होते हैं आगममें ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है / (3) तथाकथित म्लेच्छ देशोंमें प्रवृत्तिधर्मको न्यूनता है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि वहाँ पर प्रवृत्तिधर्म होता ही नहीं। .. . (4) आगमके अभिप्रायानुसार जो पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न होते हैं वे कर्मभूमिज मनुष्य हैं और जो तीस अकर्मभूमियों तथा अन्तर्वीपोंमें उत्पन्न होते हैं वे अकर्मभूमिज मनुष्य हैं, इसलिए प्रकृतमें कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज शब्दोंकी संगति इन लक्षणोंको दृष्टिमें रखकर ही बिठलानी चाहिए। (5) कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज शब्दोंका आर्य और म्लेच्छ अर्थ एक तो आगममें किया नहीं है। सबसे पहले उक्त शब्दोंका यह अर्थ आचार्य जिनसेनने किया है। इसके पूर्ववर्ती कोई भी आचार्य इस अर्थको स्वीकार नहीं करते। दूसरे इन शब्दोंका आर्य और म्लेच्छ अर्थ स्वीकार कर लेने पर भी उससे यह फलित नहीं होता. कि म्लेच्छखण्डोंमें धर्मकर्मकी प्रवृत्ति नहीं होती। प्रत्युत उससे यही सिद्ध होता है कि आर्यखण्डों के समान म्लेच्छखण्डोंमें भी धर्म-कर्मकी प्रवृत्ति होती है / वहाँ संयमासंयम और संयमधर्मकी प्रवृत्ति न्यूनमात्रामें हो यह अलग बात है। धर्माधर्मविचार___ पहले हम नोआगमभाव मनुष्योंके चार भेद करके तथा उनमें से लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंको छोड़कर शेष तीन प्रकारके भेदोंमें चौदह गुणंस्थानोंका निर्देश कर आये हैं। वे तीन प्रकारके मनुष्य ही यद्यपि यहाँपर