________________ . नोभागमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्ममीमांसा कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज इन दो भागोंमें बटे हुए हैं, तथापि अकर्म• भूमिज ( भोगभूमिज ) मनुष्य संयमासंयम और संयमधर्मके अधिकारी नहीं होते। इसलिए उनमें प्रारम्भके चार गुणस्थानोंकी और कर्मभूमिज मनुष्योंमें चौदह गुणस्थानोंकी प्राप्ति सम्भव है। इतना अवश्य है कि जो अकर्मभूमिज मनुष्य उसी भवमें अतिशीघ्र सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है वह गर्भसमयसे लेकर नौ मास और उनचास दिनका होने पर ही उसे उत्पन्न कर सकता है / तथा जो कर्मभूमिज मनुष्य उसी भवमें अतिशीघ्र सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है वह गर्भसे लेकर आठ वर्षका होनेपर हो उसे उत्पन्न करनेका पात्र होता है। कर्मभूमिज मनुष्योंमें संयमासंयम और संयमके उत्पन्न करनेके लिए भी यही नियम है। कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज ये भेद तिर्यञ्चोंमें भी सम्भव हैं, इसलिए वहाँ पर भी मनुष्यों के समान गुणस्थानोंका विचार कर लेना चाहिए / मात्र तिर्यञ्चोंमें संयमधर्मको प्राप्ति सम्भव नहीं है, इसलिए अकर्मभूमिज तिर्यञ्चोंमें चार और कर्मभूमिज तिर्यञ्चोंमें पाँच गुणस्थान ही जानने चाहिए / इतना अवश्य है कि जो तिर्यञ्च उसी भवमें अतिशीघ्र सम्यक्त्व और संयमासंयमको उत्पन्न करते हैं वे गर्भसे लेकर दो माह और अन्तर्मुहूर्तके होनेपर ही उन्हें उत्पन्न करनेके पात्र होते हैं। मात्र सम्मूर्छन तिर्यञ्च अन्तर्मुहूर्त के बाद ही उन्हें उत्पन्न करनेके अधिकारी हैं। विशेष व्याख्यान जिस प्रकार पूर्वमें धर्माधर्मका विचार करते समय कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। . - यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि मनुष्यों के आर्य और म्लेच्छ ये भेद मूल आगम साहित्यमें उपलब्ध नहीं होते / तथापि उत्तरकालीन जिनसेन प्रभृति आदि आचार्योंने इन भेदोंकी संगप्ति आचार्य यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोंमें निर्दिष्ट कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज मनुष्यों के साथ बिठलाई है। उनके कथनका सार यह है कि आर्य कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज (भोगभूमिज ) दोनों प्रकार के होते हैं / तथा म्लेच्छ भी कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज ( अन्तीपज) दोनों प्रकारके होते हैं। यहाँ इतना अवश्य