________________ - नोभागमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्ममीमांसा कर्मभूमियाँ हैं, इसलिए यह मानना तो युक्त नहीं कि यहाँ जिन्हें म्लेच्छ खण्ड-कहा गया है उन क्षेत्रोंमें कर्मकी प्रवृत्ति नहीं है। 'कर्म' शब्दके हम पहले दो अर्थ कर आये हैं / एक तो कृषि आदि साधनोंसे आजीविका करना और दूसरा सप्तम नरकमें जाने योग्य पाप या सर्वार्थसिद्धिमें जाने योग्य पुण्यके बन्धको योग्यताका होना / म्लेच्छ खण्डोंमें भोगभूमिकी रचना नहीं है, इसलिए वहाँ के निवासी मनुष्य कृषि आदिसे हो अपनी आजीविका करते हैं यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है। यह हो सकता है कि वहाँ धर्मका प्रचार अधिक मात्रामें न होनेके कारण हिंसादि कर्मोंकी बहुलता हो। पर इतने मात्रसे वहाँ कृषि आदि कर्मों का निषेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि वहाँ के मनुष्य अन्न खाते ही नहीं होंगे यह कैसे माना जा सकता है ? तथा वहाँ के मनुष्य हिंसाबहुल होते हैं, इसलिए उनमेंसे कुछ सप्तम नरककी आयुका बन्ध करते हों यह भी सम्भव है / जैसा कि भोगभूमिका नियम है कि वहाँ उत्पन्न होनेवाले प्राणी मरकर नियमसे देव होते हैं ऐसा पाँच म्लेच्छ खण्डोंके लिए कोई नियम नहीं है / यहाँ पर उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंके लिए चारों गतियोंका प्रवेशद्वार सदासे खुला हुआ है, इसलिए यहाँ पर सब प्रकारके कर्मको प्रवृत्ति होती है यह माननेमें आगमसे रञ्चमात्र भी बाधा नहीं आती। अब रही धर्मप्रवृत्तिकी बात सो इस विषयमें आगमका अभिप्राय यह है कि कर्मभूमि सम्बन्धी जो भी क्षेत्र है, चाहे वह स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें स्थित कर्मभूमिसम्बन्धी क्षेत्र हो और चाहे ढाई द्वीप और दो समुद्रोंमें स्थित कर्मभूमिसम्बन्धी क्षेत्र हो, उस सबमें आचारधर्मकी प्रवृत्ति न्यूनाधिकमात्रामें नियमसे पाई जाती है। अन्यथा स्वयंप्रभपर्वतके पर भागमें स्थित स्वयंभूरमण द्वीपमें और स्वयंभरमण समुद्र में तिर्यञ्चोंके संयमासंयमका सद्भाव नहीं बन सकता। कर्मभूमिसम्बन्धी सब म्लेच्छ खण्डोंमें तथा लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र में तिर्यञ्च तो सम्यक्त्व और संयमासंयमके धारी हों और पन्द्रह कर्मभूमिसम्बन्धी सब म्लेच्छ खण्डोंके मनुष्य