________________ नोभागमभाव मनुष्यों में धर्माधर्ममीमांसा 83 भी छोड़ देता है और संसारमें परिभ्रमण करने लगता है। आगममें बतलाया है कि जिस नित्यनिगोदिया जोवने कभी भी निगोद पर्यायको छोड़कर अन्य पर्याय धारण नहीं की वह भी वहाँसे निकलकर त्रसं-स्थावरसम्बन्धी कुछ पर्यायोंको धारण करनेके बाद मनुष्य हो सम्पक्त्व और संयमका पालन कर मोक्षका अधिकारी होता है और वहाँ यह भी बतलाया है कि यह जीव मनुष्य पर्यायमें सम्यक्त्व, संयम और उपशमश्रेणिको प्राप्त करनेके बाद भी वहाँसे च्युत हो परम निकृष्ट निगोदशाका पात्र होता है / तात्पर्य यह है कि धर्मको अमुक प्रकारके मनुष्य ही प्राप्त कर सकते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है, किन्तु अपनी अपनी योग्यतानुसार उसकी प्राप्ति चारों गतियोंमें होती है / नारको, देव और भोगभूमिज जीव असंयमभावके साथ सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर सकते हैं, तिर्यञ्च सम्यक्त्वके साथ संयमासंयमभावको प्राप्त कर सकते हैं और कर्मभूमिज गर्भज सब प्रकारके मनुष्य सम्यक्त्व के साथ संयमासंयम और संयम दोनोंको प्राप्त कर सकते हैं। इस सम्बन्धमें शरीरकी दृष्टि से जो अपवाद हैं उनका निर्देश धवला टीका व उसमें उल्लिखित प्राचीन प्रमाणोंके आधारसे हम कर ही आये हैं / यद्यपि हम कषायप्राभूतचूर्णिके आधारसे पहले यह बतला आये हैं कि अकर्मभूमिज मनुष्य भी कर्मभूमिज मनुष्यों के समान संयमासंयम और संयमधर्मको प्राप्त करनेके अधिकारी हैं। परन्तु यह कथन विवक्षाभेदसे ही जानना चाहिए / विशेष खुलासा हम आगे करनेवाले हैं ही। मनुष्योंके क्षेत्रको अपेक्षासे दो भेद पिछले प्रकरणमें नोआगमभाव मनुष्योंके चार भेद करके उनमें धर्माधर्मका विचार कर आये हैं। यहाँ क्षेत्रकी अपेक्षा उनकी क्या संज्ञाए हैं और उनमें कहाँ किस प्रमाणमें धर्मको प्राप्ति होती है इसका विचार किया गया है / षट्खण्डागम और कषायप्राभृतके अनुसार क्षेत्रकी अपेक्षा मनुष्य दो प्रकारके हैं--कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज / कर्मभूभिजका अर्थ है कर्मभूमिमें उत्पन्न होनेवाले और अकर्मभूमिजका अर्थ है कर्मभूमियों