________________ समाजधर्म पड़ता है। वहाँ शूद्रकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन वर्ण द्विजाति हैं। इनके सिवा एक चौथी जाति है जिसे शूद्र कहते हैं / इन चार वर्षों के सिवा अन्य कोई पाँचवां वर्ण नहीं है। इतना अवश्य है कि किन्हीं वैदिक शास्त्रोंमें चाण्डालको पाँचवें वर्णका कहा है। . उपसंहार-यहाँ तक हमने धर्म और उसके अवान्तर भेदोंकी सामान्य व्याख्या करके व्यक्तिधर्म और समाजधर्मका साङ्गोपाङ्ग विचार किया। साथ ही हमने यह भी बतलाया कि व्यक्तिधर्मका पूर्ण प्रतिनिधित्व जैनधर्म करता है और समाजधर्मका पूर्ण प्रतिनिधित्व वैदिकधर्म करता है। हम यह तो मानते हैं कि उत्तर-कालीन साहित्यमें कुछ ऐसी सामग्री सञ्चित हो गई है जो जैनधर्मके व्यक्तिवादी स्वरूपको उसी प्रकार आच्छादित करनेमें समर्थ है जिसप्रकार राहु चन्द्रमाको आच्छादित कर लेता है। उदाहरणस्वरूप यहाँ पर हम महापुराणमें प्रतिपादित कुछ मान्यताओंका उल्लेख कर देना आवश्यक मानते हैं / महापुराणमें ये सब मान्यताएँ ब्राह्मणवर्णको स्थापनाके प्रसङ्गसे भरत महाराजके मुखसे कहलाई गई हैं। भरत महाराजको अनेक राजाओंके साथ भारतवर्षको जीतकर साठ हजार वर्षमें दिग्विजयसे लौटने पर यह चिन्ता सताती है कि मैं अपनी इस विपुल सम्पत्तिका उपयोग किस कार्यमें करूँ। वे विचार करते हैं कि परम निस्पृही मुनिजन तो हम लोगोंसे धन लेते नहीं हैं। परन्तु ऐसे गृहस्थ भी कौन हैं जो धन-धान्य आदि सम्पदा द्वारा पूजा करने योग्य हैं। इसी विचारके परिणाम-स्वरूप वे व्रती श्रावकोंके आश्रयसे ब्राह्मणवर्णकी स्थापना कर व उनका यज्ञोपवीत और धन्य-धान्यादि सम्पदासे सत्कार कर उन्हें क्रियामन्त्रगर्भ धर्मका उपदेश देते हुए कहते हैं-इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप यह द्विजोंका कुलधर्म 1. मनुस्मृति अ० 10 श्लो० 4 / .