________________ वर्ण, जाति और धर्म पुराणमें भरत महाराजके मुखसे प्राचार्य जिनसेनने क्रियायन्त्रगर्भ धर्मका जितना भी उपदेश दिलाया है उसका जिनवाणी तथा मोक्षमार्गके साथ रञ्चमात्र भी सम्बन्ध नहीं है / किन्तु यह लौकिकधर्म है जो उन्होंने समन्वय करनेके अभिप्रायसे वेदानुमोदित मनुस्मृतिसे लेकर महापुराणमें निबद्ध कर दिया है। लोकमें ब्राह्मणादि जातियों के आधारसे जितना भी लौकिक धर्म प्रचलित है उसमें वेद और मनुस्मृति ही प्रमाण हैं इस सत्यको यशस्तिलकचम्पू और नीतिवाक्यामृतमें सोमदेवसूरिने बहुत ही स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार किया है।' इससे भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है। इसलिए हमें प्रकृतमें यही मानना उचित है कि जैनधर्म और वर्णाश्रमधर्ममें पूर्व और पश्चिमका अन्तर है। जैसा कि जैनधर्मका स्वरूप और प्रकृति उसके मूल आगम साहित्यमें तथा वर्णाश्रमधर्मका स्वरूप और प्रकृति उसके वैदिक साहित्यमें बतलाई है उसके अनुसार ये दोनों धर्म न कभी एक हो सकते हैं और न कभी इनका एक होना वांछनीय ही है / यह दूसरी बात है कि यदि वैदिकधर्म अपने जातिवादी कार्यक्रमको तिलाञ्जलि देकर समानताके आधार पर गुणकर्मानुसार समाज व्यवस्थाको स्वीकार कर लेता है तो उसके इस उपक्रमका जैनधर्म स्वागत ही करेगा, क्योंकि यह उसकी मूल मान्यताके अनुकूल है। इससे सब जीवधारियोंको अपनी-अपनी योग्यतानुसार आत्मोन्नति और सामाजिक उन्नति करनेका मार्ग खुल जाता है / नोआगमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्ममीमांसा आवश्यक स्पष्टीकरण पिछले अध्यायोंमें हम धर्मके स्वरूप और उसके अवान्तर भेदोंकी मीमांसा कर आये हैं। वहाँ एक उपप्रकरणमें यह भी बतला आयें हैं कि 1. यशस्तिलकचम्पू आश्वास पृ०३७३ / नीतिवाक्यामृत पृ० 81 /