________________ - नोआगमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्ममीमांसा 67 जो कुछ भी लिखा गया है उसकी पूर्व पूर्व आगमके आधारसे सम्यक् परीक्षा करके ही हमें प्रमाणता स्थापित करनी चाहिए / केवल अमुक स्थान पर यह लिखा है इस आधारसे उसे ही प्रमाण मान बैठना उचित नहीं है। प्रकृतमें हम जिन विषयों पर ऊहापोह करना चाहते हैं वहाँ पर हम भी विवेकमूलक सूत्रानुसारी बुद्धिसे ही काम लेनेका प्रयत्न करेंगे, क्योंकि जो लौकिक मान्यताएं परिस्थितिवश जैनधर्मका अङ्ग बन गई हैं उनको आगम और युक्तिके बलसे जैनधर्म बाह्य मानने में ही जैनधर्मका सम्यक् प्रकाश हो सकेगा ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है / नोआगमभाव मनुष्यकी व्याख्या वर्तमान समयमें जैनधर्मका जो भी आगम साहित्य उपलब्ध है उसमें षट्खण्डागम और कषायप्राभूत प्रमुख है, क्योंकि उत्तरकालीन धार्मिक साहित्यका वह मूल आधार है। उसमें सब जीव राशि पाँच भागोंमें विभक्त की गई है--नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, देवगति और सिद्धगति / यह तो स्पष्ट है कि संसारी जीव सिद्धोंके समान सर्वथा स्वतन्त्र नहीं हैं / उनका जीवन-व्यवहार जीव और पुद्गल इन दोके मेलसे चालू है। इसीको संसार कहते हैं / जिन संसारी जीवोंका मोक्षके लिए उद्यम है उनका वह उद्यम एकमात्र पुद्गलके स्वीकृत संयोगसे छुटकारा पाने के लिए ही है / समस्त जैनसाहित्यमें धर्मको मोक्षमार्ग इसी अभिप्रायसे कहा गया है, इसलिए यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि जीवके साथ पुद्गलका वह संयोग किस प्रकारका है ? इसीके उत्तर स्वरूप आगममें यह बतलाया गया है कि जिन पुद्गलोंके साथ इस जीवका अनादि कालसे एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध होता आ रहा है उनकी कर्म संज्ञा है, क्योंकि जीवके रागद्वेष आदि भार्वोका निमित्त पाकर वे निर्मित होते हैं, इसलिए जीवका कार्य होनेसे उन्हें कर्म कहते हैं। ये सब कर्म कर्मसामान्यकी अपेक्षा एक प्रकारके होकर भी अपने उत्तर भेदोंकी अपेक्षा आठ प्रकारके और अवान्तर भेदोंकी