________________ ' नोआगमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्ममीमांसा 71 इसपर कोई ऐसी शंका कर सकता है कि जिस जीवके मनुष्यगति नामक कर्मका उदय है उसे मनुष्य कहा जाय इसमें आपत्ति नहीं है। परन्तु ऐसे जीवको शरीर प्राप्त होनेपर उसमें भी मनुष्य शब्दका व्यवहार करनेमें बाधा नहीं होनी चाहिए, क्योंकि मनुष्य पर्याय विशिष्ट जीवको ही इसकी प्राप्ति होती है / समाधान यह है कि नारकी, तिर्यश्च, मनुष्य और देव ये सब भेद जीवोंके ही हैं, शरीरोंके नहीं। ये भेद शरीरोंके नहीं हैं यह इसीसे स्पष्ट है कि जब ये जीव एक शरीरको छोड़कर न्यूतन शरीरकी प्राप्तिके पूर्व विग्रहगतिमें रहते हैं तब भी इन संज्ञाओंका व्यवहार होता है और जब ये अपने-अपने योग्य शरीरोंको प्राप्त हो जाते हैं तब भी इन संशात्रोंका व्यवहार होता है। हैं ये संज्ञाएँ जीवोंकी ही, शरीरोंकी नहीं इतना स्पष्ट है। ... यहाँपर हमने इन नारक, तिर्यञ्च और मनुष्य आदि पर्यायोंको नोआगमभाव संज्ञा दी है, इसलिए प्रकृतमें इस शब्दके अर्थका स्पष्टीकरण कर देना भी आवश्यक है। नोआगमभावका सामान्य लक्षण तो यह है कि जिस द्रव्यकी जो वर्तमान पर्याय होती है वह उसकी नोआगमभाव पर्याय कहलाती है। उदाहरणार्थ वर्तमानमें जो आम मीठा है उसका वह मीठापन नोआगमभाव कहा जायगा। इसी प्रकार जो जीव वर्तमानमें मनुष्य है उस समय वह नोआगमभाव मनुष्य कहलायगा। ऐसा नियम है कि पुद्गलविपाकी कर्मोके उदयसे जीवको नोआगमभावरूप पर्यायका निर्माण नहीं होता, क्योंकि पुद्गलविपाकी कर्मोका फल जीवमें न होकर जीवसे एक क्षेत्रावगाही सम्बन्धको प्राप्त हुए शरीर आदिमें होता है / इसी भावको स्पष्ट करते हुए गोम्मटसार कर्मकाण्डमें कहा भी है- . णोभागमभावो पुण सगसगकम्मफलसंजुदो जीवो / पोग्गलविवाइयाणं णत्थि खु णोआगमो भावो // 86 // इस गाथामें दो बातें स्पष्ट की गई हैं। पूर्वार्धमें तो यह बतलाया गया है कि अपने-अपने. कर्मफलसे युक्त जीव नोआगमभाव कहा जाता है।