________________ 76 वर्ण, जाति और धर्म होना स्वाभाविक है कि यदि द्रव्यस्त्रीको मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती तो उक्त सूत्रमें उसके चौदह गुणस्थान क्यों कहे गये हैं। वीरसेन स्वामीने इस शंकाका समाधान सब कार्मिक ग्रन्थोंमें स्वीकृत मार्गणाओंके स्वरूपको ध्यानमें रखकर किया है। तुल्लकबन्ध और अन्य प्रमाणोंका हवाला देकर यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि आगम परम्परामें सर्वत्र नोआगम भाव मार्गणाओंका आश्रय लेकर ही कथन हुआ है। प्रकृतमें वीरसेन स्वामीने भी इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर उत्तर दिया है। उत्तरका . सार यह है कि यहाँपर मनुष्यिनी शका अर्थ द्रव्यस्त्री न होकर स्त्रीवेदके उदयसे युक्त मनुष्यगतिका जीव है और ऐसे जीवके, चौदह गुणस्थान बन सकते हैं / यही कारण है कि प्रकृत सूत्रमें मनुष्यिनीके चौदह गुणस्थानोंका सद्भाव स्वीकार किया गया है। ___ इस उत्तरसे यद्यपि मूल प्रश्नका समाधान तो हो जाता है पर एक नई शंका उठ खड़ी होती है। वीरसेन. स्वामीने उस शंकाको उठाकर उसका भी समाधान किया है। शंकाका सार यह है कि यहाँपर मनुष्यिनी शब्दका अर्थ स्त्रीवेदके उदयवाला मनुष्य जीव लेनेपर मनुष्यिनी शब्दका व्यवहार नौंवे गुणस्थान तक ही होना चाहिए। आगेके गुणस्थानोंमें किसी भी जीवको मनुष्यिनी कहना उचित नहीं है, क्योंकि आगे मनुष्यिनी शब्दके व्यवहारका कारण वेदनोकषायका उदय नहीं पाया जाता / शंका मार्मिक है और वीरसेन स्वामीने इसका जो उत्तर दिया है वह शंकाका समुचित उत्तर होकर भी सिद्धान्त ग्रन्थोंके और सभी कार्मिक ग्रन्थोंके आशयके अनुरूप है / इन ग्रन्थोंमें सर्वत्र चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणाओं के लिए उपयुक्त हुए शब्दोंके वाच्यार्थरूपसे जीवोंके भेद ही विवक्षित रहे हैं, शरीरके भेद नहीं, इसलिए प्रकृतमें मनुष्यनी शब्दके वाच्यार्थ रूपसे स्त्रीवेदके उदयवाला मनुष्यगतिका जीव ही लिया गया है इसमें सन्देह नहीं। तथा इस दृष्टि से इस शब्द का व्यवहार नौवें गुणस्थान तक ही होना चाहिए यह भी ठीक है। परन्तु आगे ऐसे