________________ वर्ण, जाति और धर्म होकर मिथ्यादृष्टि हो सकता है। किन्तु क्षायिकसम्यक्त्वके विषयमें ऐसी बात नहीं है / यह सम्यक्त्वके विरोधी कर्मोंका सर्वथा अभाव करके ही उत्पन्न होता है,इसलिए उत्पन्न होने के बाद इसका नाश नहीं होता / ऐसा जीव या तो उसी भवमें या तीसरे या चौथे भवमें सब कर्मों का नाश कर नियमसे मोक्ष प्राप्त करता है। इसकी प्राप्तिके विषयमें ऐसा नियम है कि क्षायिकसम्यक्त्वका प्रस्थापक तो कर्मभूमिज मनुष्य ही होता है परन्तु इसकी परिपूर्णता यथायोग्य चारों गतियोंमें हो सकती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसका प्रारम्भ तीर्थङ्कर केवली, सामान्य केवली या श्रुतकेवलीके पादमूलमें ही होता है। - संयमासंयम, जिसे चरणानुयोगकी दृष्टि से श्रावकधर्म कहते हैं, तिर्यञ्च और मनुष्य दोनोंके होता है। मात्र सबसे जघन्य और सबसे उत्कृष्ट संयमासंयम भाव मनुष्यके ही होता है। परन्तु मध्यम भावके लिए ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। वह यथासम्भव तिर्यञ्चोंके भी होता है और मनुप्योंके भी होता है। इसकी प्राप्ति कई प्रकारसे होती है। किसीको सम्यक्त्वकी प्राप्तिके साथ ही इसकी प्राप्ति होती है, किसीको पहले सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और उसके बाद इसकी प्राप्ति होती है। तथा किसी मनुष्यको संयमभाव (मुनिधर्म ) छूटकर इसकी प्राप्ति होती है। संयमासंयम प्राप्त होनेपर वह जीवन पर्यन्त ही बना रहे ऐसा भी कोई नियम नहीं है / किसीके वह जीवन पर्यन्त बना रहता है और किसीके अन्तर्मुहूर्तमें छूटकर अन्य भाव हो जाता है। या तो उसके छूटने के बाद असंयमभाव (अविरत दशा) हो जाता है या परिणामोंकी विशुद्धतावश मनुष्यके संयमभाव (मुनिधर्म) हो जाता है। तात्पर्य यह है कि केवल बाह्य आचारसे इसका सम्बन्ध नहीं है। बाहरसे श्रावकधर्मका पालन करनेवाला भी असंयमी होता है और बाहरसे मुनिधर्मका पालन करनेवाला भी संयमासंयमी या असंयमी हो सकता है। इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डकमें कहा है