________________ 54 वर्ण, जाति और धर्म देनेके आप अधिकारी हैं। इस पर भगवान् मनुने धर्मशास्त्रका उपदेश दिया। इस प्रसङ्गको व्यक्त करनेवाले मनुस्मृतिके श्लोक इस प्रकार हैं मनुमेकाग्रमासीनमभिगम्य. महर्षयः / प्रतिपूज्य यथान्यायमिदं वचनमब्रुवन् // 1 // भगवन् सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः। अन्तरप्रभवाणां च धर्माबो वक्तुमर्हसि // 2 // त्वमेको ह्यस्य सर्वस्य विधानस्य स्वयंभुवः / / अचिन्त्यस्याप्रमेयस्य कार्यतत्त्वार्थवित्प्रभो // 3 // स वैः पृष्टस्तथा सम्यगमितौजा महात्मभिः / प्रत्युवाचाय॑ तान्सर्वान्महर्षीन् श्रयतामिति // 4 // इसके बाद याज्ञवल्क्यस्मृतिका स्थान है। इसमें भी चार वर्णों और चार आश्रमोंके धर्मोंकी पृच्छा करा कर उत्तरस्वरूप वर्णाश्रमधर्मका विचार किया गया है। तात्पर्य यह है कि समस्त वैदिक साहित्यमें एकमात्र वर्णाश्रमधर्मका विचार करते हुए मनुष्यजातिके चार मूल भेद मान लिये गये हैं। लोकमें आजीविकाके आधारसे नामकरणको परिपाटी देखी जाती है। अध्यापनका कार्य करनेवालेको अध्यापक कहते हैं और न्यायविभागको सम्हालनेवाला न्यायाधीश कहलाता है। इसी प्रकार जो स्वयं सदाचारका पालन करते हुए अध्यापनका कार्य करते हैं वे ब्राह्मण कहे जावें, जो देश और समाजकी रक्षामें नियुक्त हैं वे क्षत्रिय कहे जावें, जो कृषि, वाणिज्य और पशुपालनके द्वारा अपनी आजीविका करते हैं वे वैश्य कहे जावें तथा जो शिल्प आदिके द्वारा अपनी आजीविका करते हैं वे शुद्ध कहे जावें यह विशेष आपत्ति योग्य न होकर आजीविकाके आधारसे नामकरणमात्र है। ऐसा हमेशासे होता आया है और भविष्यमें भी होता रहेगा। मुख्य अड़चन तो इन ब्राह्मणादि वर्गोंको जन्मसे मानने की है / कुछ अपवादोंको छोड़कर समस्त वैदिक ग्रन्थोंका एकमात्र यही अभिप्राय है कि ब्राह्मणकी सन्तान ब्राह्मण ही होती है। वह चाहे सदाचारी