Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 3
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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उठता । भोग कर्मों को क्षयकर प्रभु ने ४४ लाख पूर्व और ४ पूर्वांग राजा रूप में व्यतीत किए। तत्पश्चात् तीन ज्ञान के धारी स्वयंबुद्ध प्रभु संसार की क्षणभंगुरता के विषय में इस भांति विचारने लगे :
(श्लोक २४२-२४८) विषाक्त खाद्य की भांति इन्द्रियों के विषयों के उपभोग क्षरण सुखदायी होते हैं; किन्तु परिणाम में अनिष्टकारी हैं । लवणाक्त भू-भाग में जिस प्रकार मीठा जल पाना दुष्कर है उसी प्रकार इस भव-सागर में मनुष्य जन्म पाना भी दुष्कर है। जब मनुष्य जन्म मिला है तो उसे अमृत रस में पांव धोने की भांति व्यर्थ होने देना उचित नहीं है।
(श्लोक २४९-२५०) जब प्रभु इस प्रकार चिन्तन कर रहे थे तभी लोकान्तिक देवों ने आकर उनसे निवेदन किया-'भगवन्, तीर्थ की स्थापना करिए।' देवों के चले जाने के पश्चात् भगवान् संवत्सरी दान देने को प्रस्तुत हए । इन्द्र के आदेश से कुबेर द्वारा प्रेरित जम्भक देवगणों ने जिस धन के अधिकारी मर चुके हैं, जो अज्ञात गिरि-कन्दरामों में या समाधिस्थलों में गाड़े हुए हैं, घरों में लकाए हुए हैं, बहुत दिनों से खोए हए हैं, ऐसे धन लाकर श्रावस्ती के चौराहों पर, तिराहों पर एवं अन्य स्थानों पर स्तूपीकृत पहाड़ की भांति धर दिए । सम्भव स्वामी ने श्रावस्ती में घोषणा करवा दी कि जिसको जितना धन चाहिए वह उतना मुझसे पाकर ले जाए। स्वामी प्रतिदिन एक करोड़ पाठ लाख सुवर्ण दान करते थे। जिस समय अर्हत् प्रभु ने दान दिया उस समय जितने याचक उपस्थित थे उन्हें एक वर्ष तक ३८८ कोटि ८० लाख सुवर्ण दान दिया। (श्लोक २५१-२५९)
वर्ष के अन्त होते ही इन्द्र का प्रासन कम्पायमान हुमा । वे सपरिवार एव अनुचरों सहित स्वामी के घर उपस्थित हुए । विमान में अवस्थित रहकर उन्होंने तीन बार प्रभुगह की प्रदक्षिणा दी फिर विमान से बाहर आए। उनके चरण भूमि से चार अंगुल ऊपर थे। समस्त इन्द्रों ने त्रिलोकपति को प्रदक्षिणा देकर भक्तिभाव से वन्दन किया। स्नानाभिषेक की भांति आभियोगिक देवों द्वारा लाए तीर्थ-जल से अच्युतेन्द्र ने प्रभु का स्नानाभिषेक किया। भक्ति में विज्ञ अन्य इन्द्रों ने भी उसी प्रकार प्रभु का स्नानाभिषेक किया। तत्पश्चात् सुरेन्द्रों की तरह असुरेन्द्रों ने भी सुवासित जल