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तत्त्वभावना
जिन्होंने क्रोधादि कषायों को ऐसा जीत लिया है कि सताये जाने पर भी किसी पर द्वेष नहीं करते हैं। अपने शत्रु को भी आत्मा का हित ही चाहते हैं । जो विद्वान व माननीय होने पर भी कभी घमंड नहीं करते । कहीं तिरस्कार हो जाय तो जरा भी उदास नहीं होते। जो कभी कपट या मायाचार नहीं करते मन में जो होता है वही वचन से कहते, वचन से कहते वही क्रिया करते हैं। जो लोभ के यहां तक त्यागी हैं कि अनेक प्रलोभनों के कारण मिलने पर भी वीतराग भाव से नहीं हटते । जिनका निरंतर यह उद्यम रहता है कि हम स्वरूपाचरण चरित्र में डटे रहें अपने निजात्मा का अनुभव करते रहें, जिनके मन में चार गतिरूप संसार महाभयंकर आकुलता का समुद्र दीखता है, सदा यह खटका रखते हैं कि यह मेरा आत्मा कहीं इस गोरखधंधे में न फंस जावे । जो अपने गुरुओं की सेवा इसीलिए करते रहते हैं कि गुरु उनके चारित्रकी संभाल रखते और उनको सदा मोक्ष मार्गपर 'मले प्रकार चलने के लिए उत्तेजना देते व सुधार करते हैं। जो जिनवाणी को तत्वविचार में परम उपयोगो समझकर उसका निरन्तर बड़े प्रेम से अभ्यास करते हैं । जो अपने आत्मीकशुद्ध भावों के सिवाय सर्व पर भावोंको त्याग देते हैं या जो निरंतर जीवरक्षा करके अभयदान देते व धर्मोपदेश देकर जानदान देते हैं व जिनके वश में पांचों इन्द्रियां रहती हैं। इसीसे वे जिन या जितेंद्रिय होते हैं ऐसे साधु महात्मा भावलिंगो मुनि होते हैं । वे यातो उसी जन्म से या दो चार दस जन्म में संसार से मुक्त हो जाते हैं। आचार्य के कहने का मतलब यह है कि इन सब बातों को बड़ा दुर्लभ व परम उपयोगी समझना चाहिए और जब इनमें से कोई या सब बातें प्राप्त हो जावें तो