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[15] अनेक दल हो गये हों, दलबन्दियों के चक्कर में पड़कर शास्त्र नामकी ओटमें अनेक लेखकोंने एक दूसरे पर कीचड़ उछाला हो, अनेक आचार्यों और टोडरमल्लजी सरीखे विख्यात ऐति. हासिक विद्वानोंको भी परीक्षाको दुहाई देनी पड़ी हो उस समय शास्त्र परीक्षाकी आवश्यकता कितनी अधिक हो जाती है इसके कहनेकी आवश्यकता नहीं है। _ 'सूर्यप्रकाश' कैसा ग्रंथ है और उसको परीक्षा कैसी लिखी गई है इसकी आलोचना करनेकी यहां कोई आवश्यकता नहीं है । संक्षेपमें इतना ही कहा जा सकता है कि जाली ग्रंथों में जितनी धूर्तता और क्षुद्रता हो सकती है वह सब इसमें है, और उसकी परीक्षाके विषयमें तो मुख्तार साहिबका नाम ही काफी है। यह खेद भार लज्जाको बात है कि सूर्यप्रकाश सरीखे भ्रष्ट प्रथा के प्रचारक ऐसे लोग हैं जिन्हें कि बहुतसे लोग भ्रमवश विद्वान और मुनि समझते हैं । परन्तु इसमें उन लोगोंका जितना अपराध है उतना या उससे कुछ अधिक अपराध जनताका भी है। स्वार्थी लोग अपनी स्वार्थसिद्धिकी कोशिश करें, धूर्त लोग धूर्तता दिखावे इसमें क्या आश्चर्य है ? यह स्वाभाविक है। जनताको अपना बचाव स्वयं करना चाहिये-उसे सदा सतर्क रहना चाहिये। अपने उद्धारके लिये अपनेही विवेककी आवश्यकता है । आशा है इस परीक्षा. प्रन्थको पढ़कर बहुतसे पाठकों का विवेक आप्रत होगा। जुबिलीबाग, तारदेव, बम्बई । दरबारीलाल न्यायतीर्थ
७-११-१९३३ । साहित्यरत्न