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[ 13 ] सती हो या असतो, उसकी माता ही बनी रहेगी। इसके अतिरिक्त असती होने पर भी माताके उपकारोंका बोझ हट नहीं सकता । परन्तु शास्त्रके विषयमें यह बात नहीं है । शास्त्र अगर कुशास्त्र हो तो हमको अधोगतिमें ले जायगा, हमारे जोधनको बर्बाद कर देगा। साथ ही वह हमारे जीवन के साथ बंधा हुआ नहीं है, हम चाहें तो कुशास्त्रसे अपनी भद्धाको हटा सकते हैं।
इस प्रकार तीनों दृष्टियोंसे शास्त्रको परीक्षा अन्य सब परीक्षाओंको अपेक्षा अधिक आवश्यक है।
कोई कोई भाई कहने लगते हैं कि "जिन शास्त्रों से हमने अपनी उन्नति को उनको परीक्षा करना तो कृतघ्नता है" ऐसे भाइयों को समझना चाहिये कि उन्नतिका कारण सत्य है असत्य नहीं । शास्त्रों में जो सत्य है उसको छोड़नेका कोई उप. देश नहीं देता-असत्यको छोड़नेका उपदेश देता है, जो कि हमारी उन्नतिका कारण नहीं है।
दूसरी बात यह है कि जिन जाली शास्त्रोको हम परीक्षा कर रहे हैं उनको पढ़ करके हम उन्नत हुए हैं यह कहना मिथ्या है।
तोसरी बात यह है कि अगर हम दूधको पोकर पुष्ट हुए हैं इस पर कोई विषमिश्रित दूध पिलाना चाहे और हम न पियें तो इसमें दूधका अपमान नहीं विषका अपमान है। शास्त्रमें असत्यका मिश्रण होने से अगर हम उसका त्याग करते हैं तो इसमें असत्यका अपमान है न कि शास्त्रका ।
चौथी बात यह है कि परीक्षा कतन्नताका नहीं, किन्तु प्रेमभक्ति और आदरका परिणाम है। सुवर्णसे हम प्रेम करते हैं इसलिये उसकी खूब परीक्षा करते हैं। उसमें कोई मैल न रह जाय इसलिये बार बार अग्निमें डालते हैं। इसका अर्थ