Book Title: Suryapraksh Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ [ 11 ] करते हैं और जिस आधारपर वे अपनी सत्यता के गोत गाते हैं उस आधारको काटने तक के लिये तैयार हो जाते हैं ! " जैनधर्म एक वैज्ञानिक धर्म है" इस बातको वे लोगभी बड़े गौरव के साथ कहते हैं जो बिलकुल अन्धश्रद्धालु है, और दूसरों की आलोचना करते समय जो परीक्षाकी युक्ति-तर्ककी दुहाई देते हैं । परन्तु जब किसी निश्पक्ष परीक्षासे उनके अन्धविश्वासको या स्वार्थको धक्का पहुँचता है तब उनका हृदय तिलमिला उठता है । वे शास्त्रकी परीक्षाको पाप कहने लगते है । इस समय उनकी हास्यास्पद मनोवृप्ति एक तमाशा बन जाती है। इस दुर्मनोवृत्तिसे त्रस्त होकर वे चिल्लाने लगते हैं कि "बस ! परीक्षा मत करो । परीक्षा करना पाप है । सरearth परीक्षा करना माताके सतत्वोको परीक्षा करने थे समान निंध है । जब हम मां बापकी परीक्षा नहीं करते तब हमें सरस्वती की परीक्षा करनेका क्या हक है ? दुनियाँके सैकड़ों कार्य बिना परोक्षाके हो चलते हैं आदि ।" अगर कोई वैनयिक मिथ्यात्वो या आज्ञानिक मिथ्यात्वी इस प्रकारके उद्गार निकालता तो उसकी इस मनोवृत्तिको अनुचित कहते हुए भी हम क्षम्य समझते । परन्तु जो एकान्त या विपरीत मिथ्यात्व है और अपनेको सम्यस्वी विवेको शानो समझते हैं तथा अपने पक्षका मंडन और पर-पक्षका खंडन करते हैं, जब वे परीक्षाको पाप कहने लगते हैं तब उनकी यह निर्लज्जता उस सीमा पर पहुँच जाती है जिसे देखकर निर्लज्जता भी लज्जित हो जाये। अरे भाई ! मां बाप की परीक्षा न करना तो ठीक, परन्तु जगतमें ऐसा कौन प्राणी है जो जीवन के अधिकांश कार्य परीक्षा-पूर्वक न करता हो । एक कौड़ी भी जब कोई चीज़

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 178