Book Title: Suryapraksh Pariksha
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 10
________________ [ 9 ] भूमिका " जितना पीला है उतना सब सोना नहीं है" यह कहावत उन भोले भाइयोंको समझाने के लिये बहुत ही उपयुक्त है जो विवेक और गंभीर दृष्टिसे काम न लेकर वेष और भाषाके जाल में फँसकर सन्मार्ग पर नहीं पहुँचने पाते या उससे भ्रष्ट होते हैं । शास्त्रोंके विषय में यह कहावत पूर्ण रूपसे चरितार्थ होती है। मिथ्यात्वकी तीन मूढताओंमें शास्त्रमूढताको जो स्वतंत्र स्थान नहीं दिया गया उसका कारण यह है कि यह एक स्वतंत्र मूढता नहीं है किन्तु सब मूढताओंका प्राण है सब मूढताओके मूलमें यह मूढता रहती है । यह मूढताओं की जननी है । 1 साधारण लोगोंकी विवेक शक्ति बहुत हलकी रहती है । और किसी चीज़ को पहचानने के लिये उनके लक्षण बहुत व्यभिचरित रहते हैं । यही कारण है कि शास्त्रोंके समान वे शास्त्रोंकी भाषाओको भी महत्व देते हैं । इसीसे लोग शास्त्रके समान संस्कृत के किसी भी श्लोक से घबराते हैं-डरते हैं। जनताकी इस कमज़ोरीका धूर्त पंडितोंने खूब हो दुरुपयोग किया है । संस्कृत भाषा भारतके प्रायः सभी प्राचीन सम्प्रदायोंमें सम्मानकी दृष्टिसे देखी जाती है इसलिये धूर्त पंडित इसका सदा दुरुपयोग करते रहे हैं। सभी सम्प्रदायोंमें इस प्रकारका धूर्ततापूर्ण साहित्य तय्यार हुआ है और बहुत अधिक हुआ है। जैनियोंने जिस प्रकार साहित्य के सभी अंगोकी पूर्ति की है उसी प्रकार इस अंगविकार को भी पूर्ति की है । धर्म के नामपर अनेक जैन लेखक बड़ा से बड़ा पाप करने से भी पीछे नहीं हटे हैं। यहांतक कि उन्होंने मनमानें ग्रंथ

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