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[ 12 ] खाती है तब अपनी शक्ति के अनुसार उसकी परीक्षा कर लेती है कि वह भक्ष्य है या अभक्ष्य ? हम भी हरएक पुरुषको बाप नहीं मानते किन्तु आकृति आदिसे पहिचानकर-परीक्षाकरउसे बाप मानते हैं। हां, यह बात दूसरो है कि कहीं परोक्षा शोघ्र होती है, कहीं देरीसे होतो है; कहीं थोड़ी होती है, कहीं बात होतो है; कहीं अल्पावश्यक होती है, कहीं बहावश्यक होती है, परन्तु परोक्षा होतो सब जगह है । इस विषयमें तीन बातें विचारणीय हैं
१. वस्तुका मूल्य, २. परीक्षाको सुसम्भवताकी मात्रा, ३. परोता करने न करनेसे लाभ-हानि की मर्यादा।।
१-रत्न परीक्षामें हम जितना परिश्रम करते हैं उतना भाजी तरकारोको परीक्षा नहीं करते । बहुमूल्य वस्तुको जाँच भी बहुत करना पड़ती है। धर्म अथवा शास्त्र सबसे अधिक बहुमूल्य है, उस पर हमारा ऐहिक और पारलौकिक समस्त मुख निर्भर है। उसका स्थान मां बापसे बहुत ऊँचा और बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिये अगर हम सब पदार्थोकी परीक्षा करना छोड़ दे तो भी शास्त्रको परीक्षा करना हमें आवश्यक ही रहेगा।
२-माताके सतीत्व असतीत्वको परीक्षा करनेका हमारे पास सुलभ साधन नहीं है । उसको प्रामाणिक साधनसामग्रो मिलना बहुत कठिन है, जबकि शास्त्रपरोक्षामें हमारी विवेक बुद्धि हो पूरा काम कर सकती हैं। और परीक्षाको साधन-सामग्रो भी बहुत मिलती है।
३-तीसरो और सबसे अधिक विचारणीय लाभहानि. को मर्यादा है। माताके सतोत्वको परोक्षा सरल हो या कठिन, परन्तु पुत्रके लिये वह निरर्थक है। क्योंकि अब वह दूसरेके गर्भ में जाकर अन्यका पुत्र नहीं बन सकता। उसकी माता,