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चंदजिणेस-त्थुदी (चन्द्रजिनेश स्तुति, वेणु-वर्णी छन्द)
भविग-कामिग-दाणसुर-हुमो। पदणहावलि-णिज्जिद-विहुमो॥ सुजससा-परिपुण्णदिसंतरो।
जयदु चंद-जिणेस-महेसरो ॥ अन्वयार्थ-(भविग-कामिग-दाणसुर-दुमो) भव्य जीवों की इच्छा पूरी करने वाले कल्पवृक्ष के समान, (पदणहावलि-णिज्जिद-विहुमो) पाँव के नख की प्रभा से जीत लिया है बिजली को, (सुजससा-परिपुण्णदिसंतरो) जिनके यश से दिशाएँ पूर्ण भर रहीं हैं, वे (महेसरो चंद जिणेस) महेश्वर चन्द्रजिनेश (जयदु) जयवंत हों।
अर्थ- भव्य जीवों की इच्छा पूरी करने वाले कल्पवृक्ष के समान, पाँव के नख की प्रभा से जीत लिया है बिजली को, जिनके यश से दिशाएँ पूर्ण भर रहीं हैं, वे महेश्वर चन्द्र जिनेश जयवंत हों।
ण हि कदावि परेहि पराजिदो। अवगदाधिग-लोग-परंपरा॥ विणयणम्म-सुरासुर-पूजिदो।
जयदु चंद-जिणेस-महेसरो॥2॥ अन्वयार्थ-(ण हि कदावि परेहि पराजिदो) जो कभी किसी से पराजित नहीं हुए, (अवगदाधिग-लोग-परम्परा) जो अच्छी तरह से लोक परम्परा को जानते हैं तथा (विणयणम्म-सुरासुर-पूजिदो) विनय से विनम्र सुरसुरों से पूजित हैं वे (चंद जिणेस-महेसरो) चन्द्रजिनेश महेश्वर (जयदु) जयवंत हों।
अर्थ-जो कभी किसी से पराजित नहीं हुए, जो अच्छी तरह से लोक परंपरा को जानते हैं तथा विनय से विनम्र सुरासुरों से पूजित हैं वे चन्द्रजिनेश जयवंत हों।
सयल-रज्जरमा-परिचागिदो। वदरमा-सिदवंत-पहावयो॥ सयल-साधु-जणेहिय पूजिदो।
जयदु चंद-जिणेस-महेसरो॥॥ 38 :: सुनील प्राकृत समग्र