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अन्वयार्थ-(अप्पस्स) आत्मा का (तच्चस्स) तत्त्वार्थ का (देव गुरु सुसत्थाणं) सुदेव-गुरु-शास्त्र का (पंचत्थिकायाणं) पंचास्तिकाय का (च) अथवा (छदव्वाणं) छहद्रव्यों का (सद्दहणं) श्रद्धान करना (सम्मत्तं) सम्यक्त्व (अत्थि) है।
अर्थ-आत्मा का, तत्त्वार्थ का, परमार्थभूत देवशास्त्रगुरु का, पंचास्तिकाय अथवा छह द्रव्यों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
व्याख्या-ज्ञान-दर्शन आदि अनंतगुण वाले आत्मतत्त्व का; जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा व मोक्ष इन सात तत्त्वार्थों का; सच्चे वीतरागी जिनदेव, निग्रंथ गुरु व अहिंसा के प्रतिपादक शास्त्रों का; जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, व आकाश इन पंचास्तिकायों का; तथा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल इन छह द्रव्यों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। उपरोक्त विषय को भलीभांति जानकर, श्रद्धानकर निज आत्म-स्वरूप को सबसे पृथक ज्ञायक स्वरूप श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।
सम्यग्दर्शन के क्षायिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक ये तीन अथवा निसर्गज व अधिगमज की अपेक्षा दो भेद हैं। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य व करणलब्धि की अनिवार्यता है।
ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप व शरीर इन आठ मदों (मानों); शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य व अप्रभावना इन आठ दोषों; कुदेव, कुशास्त्र व कुगुरु तथा इनके सेवक रूप छह अनायतनों तथा देव-गुरु व पाखंडी मूढ़ता रूप तीन मूढ़ताओं (25 दोष) के त्याग से सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है। 'सम्यग्दर्शन-सहितोऽहम्।'
सम्यग्ज्ञान का लक्षण जारिसं अत्थि वत्थु, णाणं जाणादि तारिसं णिच्चं।
तं णाणं सण्णाणं, अप्पाणप्पा य जेण भासंते॥4॥ अन्वयार्थ-(जारिसं अत्थि वत्थु) वस्तु जैसी है (णाणं जाणादि तारिसं णिच्चं) ज्ञान हमेशा वैसी ही जानता है, (जेण) जिससे (अप्पाणप्पा य भासंते) आत्मा-अनात्मा का ज्ञान होता है (तं णाणं सण्णाणं) वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है।
अर्थ-वस्तु जैसी है, ज्ञान वैसी ही जानता है, जिससे आत्मा-अनात्मा का ज्ञान होता है; वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है।
व्याख्या-जो वस्तु-तत्त्व का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित ज्ञान है तथा जिससे वस्तु का यथावत निर्णय होता है, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है।
'संशय-अपने तथा पर के स्वरूप को समझे बिना मैं जीव हूँ या शरीर इस प्रकार का द्वि-कोटि स्पर्शी ज्ञान संशय कहलाता है।
विपर्यय-वस्तु स्वरूप के सम्यग्ज्ञान बिना मैं शरीर हूँ, ऐसी विपरीत
अज्झप्पसारो :: 249