Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 408
________________ अन्वयार्थ – (मिच्छत्त-जोग - अवदं च कसाय रोहे) मिथ्यात्व, योग, अव्रत - और कषाय निरोध होने पर (इंदी - णिरोह सहिदे) इंद्रिय निरोध सहित होने पर ( हवेदि झाणं) ध्यान होता है (च) तथा ( धम्मेहि भावण - चरित्त - तवेहि णिच्चं ) दशधर्मों, भावनाओं, चारित्र व तपों के द्वारा (असेस - मुणी गुणी वि) सभी गुणवान मुनि ( संवरं कुव्वंति) संवर करते हैं । अर्थ - मिथ्यात्व, योग, अव्रत और कषाय निरोध होने पर, इंद्रिय निरोध सहित होने पर ध्यान होता है तथा दशधर्मों, भावनाओं, चारित्र व तपों के द्वारा सभी गुणवान मुनि संवर करते हैं। गच्छंति जे हि तव - झाण- पहाणमग्गे, ते णिज्जरंति हि बलेण कठोरकम्मे । काले जीरदि ण किंचि करेदि लाहं, पाचेदि जो सयल सुक्ख - सयं लहेदि ॥१॥ अन्वयार्थ - (जे) जो ( तव - झाण- पहाणमग्गे) तप ध्यान प्रधान रत्नत्रय मार्ग में (गच्छंति) चलते हैं (ते) वे (बलेण) बलपूर्वक (कठोर कम्मे ) कठोर कर्मों को (णिज्जरंति) निर्जरित करते हैं (कालेण जीरदि) कालानुसार जो कर्मनिर्जरा होती है (ण किंचि लाहं करेदि) वह कुछ लाभ नहीं करती (जो पाचेदि) जो अकाल में कर्मों को पका देता है (सयं) वह स्वयं (सयलसुक्खं) सकल सुख को ( लहेदि) प्राप्त करता है । अर्थ – जो तप, ध्यान प्रधान रत्नत्रय मार्ग में चलते हैं वे बलपूर्वक कठोर कर्मों को निर्जरित करते हैं । कालानुसार जो कर्मनिर्जरा होती है वह कुछ लाभ नहीं करती। जो अकाल में कर्मों को पका कर अविपाक निर्जरा करता है वह स्वयं सकल सुख को प्राप्त करता है। संसारसायर-घणे ण हि केई ठाणं, दो दो ण पदिदो इणमो हि जीवो । उड्ढं अधं तिरियरूव-विचित्त- लोगं, लोग लोग सुरूव-सरूवसच्छं ॥10॥ अन्वयार्थ – (संसारसायर-घणे ण हि केई ठाणं) घने संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां (जादो मदो ण पदिदो इणमो हि जीवो) यह जीव जन्म-मरण व पतन को प्राप्त न हुआ हो । ( उड्ढं अधं तिरियरूव-विचित्त-लोगं लोगित ) ऊर्ध्वअधो व तिर्यक्रूप लोक को देखकर ( सुरूव - सरूव - सच्छं) सुरूप स्वच्छ स्वरूप को (लोग) देखो। अर्थ - घने संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां यह जीव जन्म-मरण व 406 :: सुनील प्राकृत समग्र

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