Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 406
________________ चादुग्गदीइभममाण इमो हि जीवो, दुक्खं सुहं च विविहं अणुपत्तएदि। दव्वे य खेत्त-समये भव-भावरूवे, वट्टेदि पंच-परिवट्टणरूवलोगे॥3॥ अन्वयार्थ-(इमो) यह (जोवो) जीव (चादुग्गदीइ भममाण) चतुर्गति में भ्रमण करता हुआ (विविहं) विविध (दुक्खं सुहं च विविहं अणुपत्तएदि) दुःख और सुख को प्राप्त करता है। (दव्वे य खेत्त-समये भव-भावरूवे) द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव रूप (पंच-परिवट्टणरूवलोगे) पंचपरिवर्तन रूप लोक में (वट्टेदि) परिवर्तन करता है। __अर्थ-यह जीव चतुर्गति में भ्रमण करता हुआ विविध दुःख और सुख को प्राप्त करता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव रूप पंचपरिवर्तनरूप लोक में परिवर्तन करता है। जीवो दुजम्मदि मरेदि जगम्मि एक्को, दुक्खं सुहं च परिभुंजदि एगजीवो। एक्को गदिंअणुगदिंचसुहासुहं च, ___ एक्को हि गच्छदि सिवं रयणत्तएण॥4॥ अन्वयार्थ-(जगम्मि) जग में (जीवो) जीव (एक्को जम्मदि मरेदि) अकेला ही जन्मता मरता है (दुक्खं सुहं च परिभुंजदि एगजीवो) एक ही जीव दुःख-सुख को भोगता है, (एक्को गदिं अणुगदिं च सुहासुहं च) एक ही गति-अनुगति व शुभ-अशुभ को पाता है (च) और (एक्को हि) अकेला ही (रयणत्तएण) रत्नत्रय से (सिवं) मोक्ष को जाता है। अर्थ-जग में जीव अकेला ही जन्मता मरता है, अकेला ही जीव दुःखसुख को भोगता है। अकेला ही गति-अनुगति व शुभ-अशुभ को पाता है और अकेला ही रत्नत्रय से मोक्ष को जाता है। जीवो पुधत्ति तणुअण्ण-इणं मुणेजा, मादा-पिदुत्ति भगिणी य कुडुंब संगं। देहो मणो य वयणं पुण अण्णरूवो, जे मे भणंति हि कुणंति णिरत्थ-जम्मं ॥5॥ अन्वयार्थ-(जीवो पुधत्ति तणु अण्ण-इणं मुणेजा) जीव पृथक् है तन अन्य है यह जानो (मादा-पिदुत्ति भगिणी य कुडुंब संगं) माता-पिता, बहिन व कुटुंब संग (य) और (देहो मणो य वयणं पुण अण्णरूवो) देह मन व वचन भी अन्य हैं (जे) जो (मे) मेरे (भणंति) कहते हैं (णिरत्थ-जम्म) वे जन्म निरर्थक (कुणंति) करते हैं। अर्थ-जीव पृथक् है तन अन्य है यह जानो, माता-पिता, बहिन व कुटुंब संग 404 :: सुनील प्राकृत समग्र

Loading...

Page Navigation
1 ... 404 405 406 407 408 409 410 411 412