Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 405
________________ बारह-भावणा (बारह भावना, बसंततिलका छन्द) आऊ य अंजलि जलं व्व गलेदि णिच्चं, सोक्खंधणंसुद-सुदा-पिदरा कुडुंबी। मित्ताणिणाम सरिदा वपुरित्थी तुल्लं, संझासिरी सुरधणुव्व अणिच्च-मत्थि ॥ अन्वयार्थ-(आऊ य अंजलि जलं व्व गलेदि) आयु अंजलि के जल के समान नित्य गलती है। (सोक्खं धणं सुद-सुदा-पिदरा कुटुंबी मित्ताणि य णाम) सुख, धन, पुत्र, पुत्री, माता, पिता, कुटुंबी, मित्र और नाम (सरिदा व पुरित्थी तुल्ल संझासिरी सुरधणुव्व) नदी, वेश्या, संध्या की शोभा और इंद्रधनुष के समान (अणिच्चमत्थि) अनित्य है। अर्थ-आयु अंजलि के जल के समान नित्य गलती है। सुख, धन, पुत्र, पुत्री, माता, पिता, कुटुंबी, मित्र और नाम; नदी वेश्या, संध्या की शोभा और इंद्रधनुष के समान अनित्य है। देहो गलेदि समयादु य एदि मिच्चू, इंदो विणस्थि सरणं मणी ओसहं वि। जे मे भणंत सजणा परिदिस्सएंति, रक्खंति को मरणकाल-उवट्ठिदे हि॥2॥ अन्वयार्थ-(समयादु) समय से (देहो गलेदि) देह गलती है (य) और (मिच्चू) मृत्यु (एदि) आती है (इंदो वि णत्थि सरणं मणी ओसहं वि) इन्द्र भी शरण नहीं है और न ही मणि या औषध ही शरण है (जे) जो (मे) मेरा (भणंत सजणा परिदिस्सएंति) कहते हुए स्वजन दिखते हैं (मरणकाल-उवट्ठिदे) मरणकाल उपस्थित होने पर (को रक्खंति) कौन रक्षा करते हैं? अर्थ-प्रतिसमय देह गलती है और मृत्यु आती है, उस समय इन्द्र भी शरण नहीं है और न ही मणि या औषध ही शरण है, जो मेरा कहते हुए स्वजन दिखते हैं मरणकाल उपस्थित होने पर कौन रक्षा करते हैं? बारह-भावणा :: 403

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