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और देह, मन व वचन भी अन्य हैं। जो लोग इन्हें अपना कहते हैं वे जन्म निरर्थक करते हैं।
रोगादि-पुण्ण-मल-मुत्त-गिहं हि देहो,
दुग्गंध-सत्त-घिण-धादु-असार-छिण्णो। वाऊदु घुल्लदिइमोण हिणीर-सुद्धो,
कम्माण हेदु वि विसुज्झदि संतवेहिं॥6॥ अन्वयार्थ-(देहो) शरीर (रोगादि-पुण्ण-मल-मुत्त-गिहं हि) रोग-शोकादि से पूर्ण मल-मूत्र का घर ही है (दुग्गंध-सत्त-घिण-धादु-असार-छिण्णो) दुर्गंधित सप्त घिनावनी धातुवाला असार व छिन्न होने वाला है (इमो) यह (वाऊदु घुल्लदि) वायु से घुलता है (ण हि णीर-सुद्धो) नीर से शुद्ध नहीं होता (कम्माण हेदु वि) कर्मों का कारण है (संतवेहिं) श्रेष्ठ तप से (विसुज्झदि) विशुद्ध होता है अर्थात् विशुद्ध दशा को प्राप्त करता है।
___ अर्थ-शरीर रोग शोकादि से पूर्ण मल-मूत्र का घर ही है। दुर्गंधित, सप्त घिनावनी धातुवाला, असार व छिन्न होने वाला है, यह वायु से घुलता है, नीर से शुद्ध नहीं होता। कर्मों का कारण है, श्रेष्ठ तप से विशुद्ध होता है अर्थात् विशुद्ध दशा को प्राप्त करता है।
मिच्छत्त-जोग-अवदं च कसाय-इंदि,
कम्मासवाण हवदे विविहा य हेदू। तत्तो हि लक्ख चउरासि-कुजोणि मज्झे,
जीवो भमेदि अणुभुंजदि दुक्ख-सोगं॥7॥ अन्वयार्थ-(मिच्छत्त-जोग-अवदं च कसाय-इंदि) मिथ्यात्व, योग, अव्रत, कषाय और इन्द्रियां (कम्मासवाण) कर्मास्रव के (विविहा) विविध (हेदु) हेतु (हवदे) होते हैं (तत्तोहि) उससे ही (लक्ख चउरासि-कुजोणि मज्झे) चौरासी लाख कुयोनियों में (जीवो भमेदि) जीव भ्रमण करता है (य) और (दुक्ख-सोगे) दुःख व शोक को (अणुभुंजदि) भोगता है।
अर्थ-मिथ्यात्व, योग, अव्रत, कषाय और इन्द्रियां कर्मास्रव के विविध हेतु होते हैं उससे ही चौरासी लाख कुयोनियों में जीव भ्रमण करता है और दुःख व शोक को भोगता है।
मिच्छत्त-जोग-अवदंच कसायरोहे,
इंदी-णिरोहसहिदे य हवेदि झाणं। धम्मेहि भावण-चरित्त-तवेहि णिच्चं,
कुव्वंति संवर-मसेस-मुणी गुणी वि॥8॥
बारह-भावणा :: 405