Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 409
________________ पतन को प्राप्त न हुआ हो। ऊर्ध्व-अधो व तिर्यक्रूप लोक को देखकर सुरूप, स्वच्छ स्वरूप को देखो। एइंदियाए तसकाय सुदुल्लहोत्थि, ___ तम्हा मणुस्सभव-सेट्ठकुले यजम्म। सम्मत्त-देसवय-सुद्ध-मुणिंदरूवो, मोक्खो य दुल्लह-तमो विरमेज णाणे॥1॥ अन्वयार्थ-(एइंदियाए तसकाय सुदुल्लहोत्थि) एकेन्द्रिय से त्रसकाय बहुत दुर्लभ है (तम्हा मणुस्सभव-सेट्ठकुले य जम्म) उससे मनुष्यभव श्रेष्ठ कुल में जन्म (सम्मत्त-देसवय-सुद्ध-मुणिंदरूवो) सम्यक्त्व, देशव्रत, शुद्ध मुनीन्द्ररूप और मोक्ष (दुल्लह-तमो) दुर्लभतम है (दु) इसलिए (विरमेज णाणे) ज्ञानस्वरूप में रमण करो। ___अर्थ-एकेन्द्रिय से त्रसकाय बहुत दुर्लभ है। उससे मनुष्यभव, श्रेष्ठ कुल में जन्म सम्यक्त्व, देशव्रत, शुद्ध मुनीन्द्ररूप और मोक्ष दुर्लभतम है, इसलिए ज्ञानस्वरूप में रमण करो। धम्मो दया यरयणत्तय-जुत्त-सेट्ठो, धम्मो वि तेरहविहो चरिदं तवं च। धम्मो तरेदि भवसायर-दुत्थरत्तं, धम्मो हि कामदुह धेणुसमो त्ति लोए॥12॥ अन्वयार्थ-(धम्मो दया य रयणत्तय-जुत्त-सेट्ठो) धर्म दया व रत्नत्रय युक्त श्रेष्ठ है (धम्मो वि तेरहविहो चरिदं तवं च) धर्म तेरह प्रकार का चारित्र व तप भी है (धम्मो तरेदि भवसायर-दुत्थरत्तं) धर्म दुस्तर भवसागर से तारता है (धम्मो हि कामदुह धेणु समो त्ति लोए) लोक में धर्म ही कामदुहा धेनु के समान सर्वफलदायी है, इसलिए धर्म की आराधना करो। अर्थ-धर्म दया व रत्नत्रय युक्त श्रेष्ठ है, धर्म तेरह प्रकार का चारित्र व तप भी है। धर्म दुस्तर भवसागर से तारता है। लोक में धर्म ही कामदुहा धेनु के समान सर्वफलदायी है, इसलिए धर्म की आराधना करो। बारहभावणं सेठें, सव्व-कल्लाण कारगं। पढेदि जो य चिंतेदि, पावेदि सासयं सुहं॥ अन्वयार्थ-(सव्व-कल्लाण कारग) सर्व कल्याण कारक (सेठें बारहभावणं) श्रेष्ठ बारहभावना को (जो) जो (पढेदि) पढ़ता है (य) और (चिंतेदि) चिंतन करता है, वह (सासयं सुहं) शाश्वत सुख को (पावेदि) पाता है। बारह-भावणा :: 407

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