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धणसंगहो ) धर्म के लिए धनसंग्रह (च) और ( धम्मत्थं दुरग्गहो) धर्म के लिए दुराग्रह करना ( तो किमच्छेरं परं ) इससे बड़ा आश्चर्य और क्या होगा ?
भावार्थ-धर्म के लिए विग्रहकार्य, धर्म के लिए धनसंग्रह और धर्म के लिए दुराग्रह करना । इससे बड़ा आश्चर्य और क्या होगा ? क्योंकि धर्म में इन बातों के लिए कोई स्थान नहीं ।
किससे किसकी शुद्धि भावणादो मणोसुद्धी, वदेहि कज्ज - - सुद्धी य देहसुद्धी दिवाहारो, सिक्खासुद्धी सयं हवे ॥36॥
अन्वयार्थ - ( भावणादो मणोसुद्धी) भावना से मनोशुद्धि, (वदेहि कज्जसुद्धी) व्रत से कार्यशुद्धि ( देहसुद्धी दिवाहारो) दिवस भोजन से देहशुद्धि (य) और (सिक्खासुद्धी सयं हवे ) शिक्षाशुद्धि स्वयं होती है।
भावार्थ - श्रेष्ठ भावना से मनशुद्धि, व्रतों से कार्यशुद्धि, दिवाभोजन से कायशुद्धि होती है तथा शिक्षाशुद्धि समय पकने पर स्वयं होती है ।
धर्मात्मा की प्रवृत्ति
धम्मप्पा बीहड़ पावा, पुण्णादो य पफुल्लदि । तच्चरुई य संसग्गं, धम्मप्पाणं च इच्छदे ॥37॥
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अन्वयार्थ – (धम्मप्पा ) धर्मात्मा (पावा) पाप से (बीहइ) डरता है (पुण्णादो य पफुल्लदि) पुण्य से प्रफुल्लित होता है ( तच्चरुई) तत्त्वरुचि (य) तथा (धम्मप्पाणं) धर्मात्माओं का (संसग्गं) संसर्ग (इच्छदे) चाहता है।
भावार्थ - धर्मात्मा पाप से डरता है, पुण्य से प्रफुल्लित होता है, तत्त्वरुचि रखता है तथा धर्मीजनों का संग चाहता है ।
परतंत्र - स्वतंत्र
परतंतो पदत्थत्थी, जंतेव किरिया हवे । सहावत्थी सुतंतो य, णाणी धम्मरदो हवे ॥38॥
अन्वयार्थ – (पदत्थत्थी) पदार्थ के प्रयोजनवाला (परतंतो हवे ) परतंत्र है। (जंतेव किरिया हवे) उसकी क्रिया यंत्र के समान होती है। (य) और (सहावत्थी सुतंतो य) स्वभाव के प्रयोजन वाला स्वतंत्र ( णाणी धम्मरदो हवे) ज्ञानी धर्मरत होता है ।
भावार्थ- पदार्थों में आसक्त व्यक्ति परतंत्र है, उसकी क्रिया सदा यंत्र समान होती है और स्वभाव के प्रयोजनवाला व्यक्ति स्वतंत्र है क्योंकि वह ज्ञानी धर्मरत होता है।
वयणसारो :: 345