Book Title: Sunil Prakrit Samagra
Author(s): Udaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 394
________________ विहारो पउत्तो, किंतु अविचलभत्ती तहा विणयवसा चंदगुत्तो मुणी ण गदो। सिरी भदबाहु-सामिणा विहिणा सल्लेहणा गहिदा तहा अइपसंतभावेण सो गिरिगुहाए णियप्पझाणे तल्लीणो जादो... सो चिय णिराहारो अस्थि किंतु वणे सावगाणं अभावेण चंदगुत्तमुणिरायस्स वि अणेग-उववासा जादा। तदा सामी उच्चदि- भो वच्छ! अकारणं अणसणं उचिदं णत्थि। जिणिंदाणाणुसारेण विहिणा वणम्मि वि आहारत्थं गच्छ। गुरु-आणाणुसारेण तं णमंसित्ता चंदगुत्त-मुणिराओ आहारत्थं गदो किंतु तं तियदिवसं विहिणा आहारो ण पत्तो। तियदिवसा-णंतरं सो पुणो अण्णदिसाएआहारत्थं गदो तदा तं जिणाणाणुरत्तो-पवित्त-बुद्धी-सेट्ठ-तवस्सी जाणिदूण वणदेवीए, तम्मि दिसाए एगं सुदरं णयरं विरइदं । क्रमशः विहार करते हुए, ठहरते हुए ससंघ भद्रबाहु स्वामी एकान्त, सुरम्य श्रवणबेलगोला (कटवप्र) नाम से सुप्रसिद्ध जैन तीर्थक्षेत्र पहुँचे। वहाँ निमित्तज्ञान से अपनी आयु को थोड़ा जानकर उन्होंने सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण का निश्चय किया। __सकल संघ को बुलाकर मुनिनाथ ने सभी विषय स्पष्ट कर दिये। उन्होंने जिनधर्म के प्रसार हेतु, मुनिसंघ के परिपालन हेतु ज्येष्ठ-श्रेष्ठ मुनिराज विशाख को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करके सम्पूर्ण संघ को किंचित् महत्त्वपूर्ण उपदेश देकर आगे भी दक्षिण दिशा में विहार हेतु आज्ञा प्रदान की। तब विशाखाचार्य ने कहा- हे संघ के प्राण! आपको अकेला छोड़कर हम लोग कहाँ जावें। हमारा साहस नहीं है। जहाँ आप रहोगे वहीं पर हम सभी भी रहेंगे। आपके चरण छोड़कर कहीं भी नहीं जावेंगे। विशाखाचार्य के वचन सुनकर अत्यधिक वात्सल्य से भद्रबाहु स्वामी बोलेहे वत्स! अच्छी तरह समझो, तुम सर्वसमर्थ हो। अभी (सम्प्रति) मैं आराधना करूंगा, तुम संघ का परिपालन, परिवर्धन, शिक्षा, दीक्षा और जिनधर्म के प्रसारण के लिए विहार करो। गुरु की आज्ञा सुनकर सभी शिष्यों ने नीचे मुँह कर लिया। तब चन्द्रगुप्त (प्रभाचन्द्र) मुनि ने कहा-हे श्रेष्ठ विशाखाचार्य! गुरु आज्ञा प्रमाण करके आप संघ के साथ विहार करके धर्म प्रचार करो, मैं यहाँ गुरु चरणों के समीप वैयावृत्ति के निमित्त ठहरता हूँ। .. तब भद्रबाहु स्वामी चन्द्रगुप्त से भी बोले-हे भद्र! तुम भी जाओ।... संघ का विहार हो गया, किन्तु अविचलित भक्ति एवं विनयवश चन्द्रगुप्त मुनि नहीं गये। श्री भद्रबाहु स्वामी ने विधिपूर्वक सल्लेखना ग्रहण की और अति प्रशांतभाव से वह पर्वत की गुफा में निजात्म ध्यान में तल्लीन हुए। वह तो निराहार थे ही किन्तु 392 :: सुनील प्राकृत समग्र

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